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उसी प्रकार मूर्ख मनुष्य भी धर्म को छोड़कर, अधर्म को ग्रहण कर, अन्त में मृत्यु के मह में पड़कर जीवन की धुरी टूट जाने पर शोक करता है। - जहा य तिन्नि वाणिया, मूलं घेत्त ण निग्गया । एगोऽत्थ लहए लाभ, एगो मूलेण अागो ॥
( उत्तर० अ०७-१४) तीन बनिये कुछ पूँजी लेकर धन कमाने घर से निकले । उन में से एक को लाभ हुआ, दूसरा अपनी मूल पूँजी ही ज्योंको-त्यों बचा लाया१०- एगो मूलं पि हारित्ता, आगो तत्थ वाणिो । वहारे उवमा एसा, एवं धम्मे वियाणह ॥
( उत्तरा० अ०७-१५) तीसरा अपनी गाँठ की पूंजी भी गवाँकर लौट आया। यह एक व्यावहारिक उपमा है, यही बात धर्म के सम्बन्ध में भी विचार लेनी चाहिये११- माणुसत्तं भवे मूलं, लाभो देवगई भवे । मूलच्छेएण जीवाणं, नरग-तिरिक्खत्तणं धुवं ।।
( उत्तरा० अ०७-१६ ) मनुष्यत्व मूल है-अर्थात्-मनुष्य से मनुष्य बनने वाला, मूल पूँजी को बचाने वाला है । देव जन्म पाना, लाभ उठाना है, और जो मनुष्य नरक तथा तिर्यक गति को प्राप्त होता है, यह अपनी मूल पूँजी को भी गंवा देने वाला मूर्ख