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साधना---
यहीं से वर्धमान स्वामी का साधक जीवन प्रारम्भ होता है । बारह वर्ष, पाँच मांस और पन्द्रह दिनों तक कठोर साधना करने के पश्चात् उन्हें केवल-ज्ञान की प्राप्ति हुई।
इस लम्बे साधना-काल का विस्तृत वर्णन जैन शास्त्रों में उपलब्ध होता है । उससे प्रतीत होता है कि वर्धमान की साधना अपूर्व और अद्भुत थी । अढाई हजार वर्षों के बाद आज भी जब हम उनके तीव्रतर तपश्चरण का वृत्तान्त पढ़ते हैं और सुनते हैं तो विग्मय से रौंगटे खड़े हो जाते हैं । इस विशाल भूतल पर असंख्य महापुरुष, अवतार कहे जाने वाले विशिष्ट पुरुष और तीर्थंकर उत्पन्न हुए, मगर इतनी कठिन तपस्या करने वाला महापुरुष अतीत के उपलब्ध इतिहास ने पैदा नहीं किया । भयानक से भयानक यातनाओं में भी उन्होंने अपरिमित धैर्य, साहस एवं सहिष्णुता का आदर्श उपस्थित किया। गोपाल, शूलपाणि यक्ष, संगम देव, चण्ड कौशिक सर्प, गोशालक और लाढ़ देश के अनार्य प्रजाजनों द्वारा पहुंचाई हुई पीड़ाएँ भगवान् की अनन्त क्षमता और सहिष्णुता के ज्वलन्त निदर्शन हैं। रोमांचकारिणी उत्पीड़ाओं के समय भगवान् हिमालय की भाँति अडिग, अडोल और अकम्प रहे। तपश्चरण में असाधारण वीर्य प्रकट करने के कारण ही वे 'महावीर' के सार्थक नाम से विख्यात हुए ।
_ आगत कष्टों, परीषहों और पीड़ाओं को दृढ़तापूर्वक सहर्ष सहन करने वाला पुरुष वीर कहलाता है और भगवान
आत्मशुद्धि के लिए कभी-कभी कष्टों को निमन्त्रण देकर बुलाते, उन के साथ संघर्ष करते और विजयी बनते थे । इसी कारण वह अतिवीर और महावीर कहलाए।