Book Title: Dipmala Aur Bhagwan Mahavir
Author(s): Gyanmuni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 48
________________ सत्य, अहिंसा, संयम, तप, शांति, सन्तोष तथा आध्यात्मिक पवित्रता की एक किरण भी हम अपने अन्दर पैदा नहीं करते । दीपमाला की रात्रि में किया गया द्रव्य-उद्योत भाव-उद्योत का प्रतीक है, यह तथ्य आज हमारे मस्तिष्क मे निकल गया है। आज हम पर्व के मूल भाव को भूल गये हैं । बाह्य आडम्बरों की पूर्ति में ही पर्वाराधना समझ बैठे हैं । मकानों की सफाई में ही सैकड़ों रुपये व्यय कर देते हैं, किन्तु आध्यात्मिक विकारों का शुद्धि पर तनिक भी ध्यान नहीं देते । लक्ष्मी का पूजन करने के लिये सारी रात्रि का जागरण करने का प्रस्तुत हो जाते हैं, किन्तु आनन्द और शान्ति की भाव लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिए किंचित भी प्रयास नहीं करते ।। दीपमाला महान पर्व है तथापि लोग मिठाइयों के खाने--खिलाने में इसे खो देते हैं । वास्तव में हमें किसी पर्व के शरीर की पूजा न करके उस की आत्मा की ही पूजा करनी चाहिए । उस पर्व की मूल भावना को पहचानना चाहिये और उसमें निहित प्रकाश--पुज से अपने आंतरिक जीवन को प्रकाशित करना चाहिये, तभी हमारा पर्वआराधन सफल हो सकता है, अन्यथा हम पर्व के यथार्थ फल से वंचित ही रह जाएंगे । आज की दीपमाला में और उस युग की दीपमाला में बड़ा ही अन्तर है । उस युग में दीपमाला मनाने वाले लोग भले ही अपने मकानों की सफाई भी किया करते थे किन्तु साथ में वे अपने हृदयों की शुद्धि भी किया करते थे, उसे साफ बनाया करते थे, आत्ममन्दिर की गन्दगी को निकाला करते थे । माटो या आटे के दीपक जलाने के साथ-साथ बे लोग जप, तप, त्याग

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