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इन्सान की ज़िन्दगी में दो वक्त हैं, जबकि उसे जूश्रा नहीं खेलना चाहिये । एक तो जब वह खेल नहीं सकता और दूसरे जब वह खेल सकता हो।
जूए के दुष्परिणामों की चर्चा संक्षेप में ऊपर की पंक्तियों में की जा चुकी है । जैन तथा जैनेतर सभी दर्शनों ने जूए को एक महान दूषण बताया है, और इसे जीवन से निकाल देने की मधुर प्रेरणा प्रदान की है। जिस मानव में मानवता की चोटियों को पार करने की और जीवन को सुखी बनाने की लालसा है, कम से कम उसे तो जूए से दूर ही रहना चाहिए, भूलकर भी जूए को हाथ नहीं लगाना चाहिए ।
गधा बनने के चार कारण
जो जूश्रा जीवन के विकास का इतना घातक है, और जीवन की अवनति का मूलाधार है, स्रोत है, उसके सम्बन्ध में "दीपमाला की रात्रि को जूत्रा न खेलने वाला व्यक्ति मर कर गधा बनेगा।" यह कहना जीवन की कितनी बड़ी अज्ञानता है, और जीवन की कितनी बड़ी भूल है ? ऐसे लोगों से मैं पूछता हूँ कि यदि जूश्रा न खेलने से व्यक्ति गधा बनता है, तो ऋषि, मुनि, तपस्वी, योगी, सन्त मर कर क्या बनेंगे? वे तो कभी जूए के निकट भी नहीं जाते । जूआ खेलना तो क्या, वे स्वप्न में भी इसका संकल्प नहीं करते । तो क्या वे मर कर गधे बनेंगे ? और यदि ऋषि मुनि भी मर कर गधे की योनि में चले जाएँगे तो स्वर्ग में कौन जायगा? मैं आप को विश्वास दिलाता हूं कि जूआ न खेलने से आप गधा नहीं बनेंगे। गधा योनि में जाने का कारण “जूआ न खेलना" नहीं है । गधा बनने के कारण दूसरे हैं । गधा पशु गति का प्राणी