Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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प्रस्तावना
हो जाता है। इस ध्यान में चूंकि अर्थ से अर्थान्तर आदि का संक्रमण नहीं होता, इसलिए उसे अविचार कहा गया है । प्रथम शुक्लध्यान के समान इसमें भी श्रुत का पालम्बन रहता है (७९-८०)।
जो योगों का कुछ निरोध कर चुका है तथा जिसके उच्छवास-निःश्वास रूप सूक्ष्म काय की क्रिया ही शेष रही है ऐसे केवली के जब मुक्ति की प्राप्ति में अन्तमुहूर्त मात्र ही शेष रहता है तब उनके सूक्ष्मक्रियानिवति नाम का तीसरा शुक्लध्यान होता है (८१) ।
शैल के समान अचल होकर शैलेशी अवस्था को प्राप्त हुए उन्ही केवली के व्युच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति नाम का चौथा परम शुक्लध्यान होता है (८२)।
ये चारों शुक्लध्यान योग की अपेक्षा किनके होते हैं, इसे स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया है कि प्रथम शुक्लध्यान एक योग अथवा सब योगों में होता है, दूसरा शुक्लध्यान तीनों योगों में से किसी एक योग में होता है, तीसरा शुक्लध्यान काययोग में होता है; तथा चौथा शुक्लध्यान योगों से रहित हो जाने पर अयोगी जिन के होता है (८३)।
यहां यह आशंका हो सकती थी कि केवली के जब मन का अभाव हो चुका है तब उनके तीसरा और चौथा शुक्लध्यान कैसे सम्भव है, क्योंकि मनविशेष का नाम ही तो ध्यान है ? इस आशंका के समाधानस्वरूप प्रागे यह कहा गया है कि जिस प्रकार छद्मस्थ के अतिशय निश्चल मन को ध्यान कहा जाता है उसी प्रकार केवली के अतिशय निश्चल काय को ध्यान कहा जाता है, कारण यह कि योग की अपेक्षा उन दोनों में कोई भेद नहीं है। इस पर पुनः यह आशंका हो सकती थी कि अयोग केवली के तो वह (काययोग) भी नहीं रहा, फिर उनके व्युच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति नाम का चौथा शुक्लध्यान कैसे माना जा सकता है ? इसके परिहार स्वरूप प्रागे यह कहा गया है कि पूर्वप्रयोग, कर्मनिर्जरा का सद्भाव, शब्दार्थबहुतता और जिनचन्द्रागम; इन हेतुओं के द्वारा सयोग और प्रयोग केवलियों के चित्त का अभाव हो जाने पर भी जीवोपयोग का सद्भाव बना रहने से क्रमशः सूक्ष्मक्रियानिवर्ति और व्युच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति ये दो शुक्लध्यान कहे जाते हैं (८४-८६)।
८ ध्याता-शुक्लध्यान के ध्याताओं का कथन धर्मध्यान के प्रकरण (६३-६४) में किया जा चुका है।
६ अनुप्रेक्षा-शुक्लध्यानी ध्यान के समाप्त हो जाने पर भी प्रास्रवद्वारापाय, संसाराशुभानुभाव, अनन्तभवसन्तान और वस्तुविपरिणाम इन चार अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करता है (८७-८८) ।
१० लेश्या- प्रथम दो शुक्लध्यान शुक्ललेश्या में और तीसरा परम शुक्ललेश्या में होता है । चौथा शुक्लध्यान लेश्या से रहित है (८६)।
११ लिंग-- अवधा, असम्मोह, विवेक और व्युत्सर्ग ये चार शुक्लध्यान के लिंग कहे गये हैं। परीषह और उपसर्ग के द्वारा न ध्यान से विचलित होना और न भयभीत होना, यह अवधालिंग है। सूक्ष्म पदार्थों और देवनिर्मित माया में मूढ़ता को प्राप्त न होना, यह असम्मोह का लक्षण है । आत्मा को शरीर से भिन्न समझना तथा सब संयोगों को देखना, इसका नाम विवेक है। निःसंग होकर शरीर और उपधिका परित्याग करना, इसे व्युत्सर्ग कहा जाता है (६०-६२)।
१२ फल-शुक्लध्यान के फल का विचार करते हुए यहां कहा गया है कि शुभास्रव, संवर, निर्जरा और देवसुख ये जो शुभानुबन्धी धर्मध्यान के फल हैं विशेषरूप से वे ही शुभ प्रास्रव आदि और अनुपम देवसुख ये प्रथम दो शुक्लध्यानों के फल हैं। अन्तिम दो शुक्लध्यानों का फल निर्वाण की प्राप्ति है (६३-६४)।
इस प्रकार शुक्लध्यान की प्ररूपणा को समाप्त करते हुए धर्म और शुक्ल ध्यान निर्वाण के कारण क्यों और किस प्रकार से हैं, इसे विविध दृष्टान्तों द्वारा सिद्ध किया गया है (६५-१०२)।
अन्त में ध्यान के द्वारा इस लोक सम्बन्धी भी शारीरिक और मानसिक दुख दूर होते हैं, यह