Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 126
________________ [४७ २६ ध्यानशतकम् कार्यकरणात् उक्तं च- 'पभू णं चोद्दसपुव्वी घडाम्रो घडसहस्सं करित्तए' इत्यादि, एवमिह लोके, परत्र तु जघन्यतोऽपि वैमानिकोपपातः । उक्तं च-- उववाम्रो लंतगंमि चोहसपुब्बीस्स होइ उ जहण्णो । उक्कोसो • सव्वट्ठे सिद्धिगमो वा प्रकम्मस्स || १|| तथा 'महाविषयाम्' इति महद्विषयत्वं तु सकलद्रव्यादिविषयत्वात् । उक्तं च- 'दव्वप्रो सुयनाणी उवउत्ते सव्वदव्वाइं जाणई' इत्यादि कृतं विस्तरेणेति गाथार्थः ॥ ४५ ॥ | 'ध्यायेत्' चिन्तयेदिति सर्वपदक्रिया, 'निरवद्याम्' इति प्रवद्यं पापमुच्यते निर्गतमवधं यस्याः सा तथा ताम्, अनृतादिद्वात्रिंशद्दोषावद्यरहितत्वात् क्रियाविशेषणं वा । कथं ध्यायेत् ? निरवद्यम् - इहलोकाद्याशंसारहितमित्यर्थः । उक्तं च — 'नो इहलोगट्टयाए नो परलोगट्टयाए नो परपरिभवम्रो श्रहं नाणी' इत्यादिकं निरवद्यं ध्यायेत्, 'जिनानां' प्राग्निरूपितशब्दार्थानाम् 'ज्ञ' वचनलक्षणां कुशलकर्मण्याज्ञाप्यन्तेऽनया प्राणिन इत्याज्ञा ताम् । किविशिष्टाम् ? जिनानां – केवलालोकेनाशेषसंशय - तिमिरनाशनाज्जगत्प्र दीपानामिति, भाव विशेष्यते 'अनिपुणजनदुर्ज्ञेयाम्' न निपुणः श्रनिपुणः प्रकुशल इत्यर्थः, जनः लोकस्तेन दुर्ज्ञेयामिति — दुरवगमाम्, तथा 'नय-भङ्ग-प्रमाण- गमगहनाम्' इत्यत्र नयाश्च भङ्गाश्च प्रमाणानि च गमाश्चेति विग्रहस्तंर्गहना — गह्वरा ताम्, तत्र नैगमादयो नयास्ते चानेकभेदाः । तथा भङ्गाः क्रम - स्थानभेदभिन्नाः, तत्र क्रमभङ्गा यथा एको जीव एक एवाजीव इत्यादि, स्थापना - 11 SI SI | ss 11 51 | 5 | | 5$ 1 स्थानभङ्गास्तु यथा प्रियधर्मा नामैकः नो दृढधर्मेत्यादि । तथा प्रमीयते ज्ञेयमेभिरिति प्रमाणानि द्रव्यादीनि, यथानुयोगद्वारेषु, गमाः– चतुर्विंशतिदण्डकादयः, कारणवशतो वा किञ्चद्विसदृशाः सूत्रमार्गा यथा षड्जीवनिकायादाविति कृतं विस्तरेणेति गाथार्थः ॥ ४६ ॥ ननु या एवंविशेषणविशिष्टा सा बोद्धुमपि न शक्यते मन्दधीभिः प्रास्तां तावद्धघातुम्, ततश्च यदि कथञ्चिन्नावबुध्यते तत्र का वार्तेत्यत आह तत्थ य मइदोब्बलेणं तव्विहायरियविरहश्रो वावि । गहणत्तणेण य णाणावरणोदएणं च ॥४७॥ ऊदाहरणासंभवे य सइ सुट्ठ जं न बुज्भेज्जा । सब्वण्णुमयमवितहं तहावि तं चितए मइमं ॥४८॥ 'तत्र' तस्यामाज्ञायाम्, चशब्दः प्रस्तुतप्रकरणानुकर्षणार्थः । किम् ? जडतया चलत्वेन वा मतिदौर्बल्येन – बुद्धेः सम्यगर्थानवधारणेनेत्यर्थः तथा 'तद्विधाचार्य विरहतोऽथि' तत्र तद्विषः सम्यगविपरीततत्त्वप्रतिपादन कुशलः, आचर्यतेऽसावित्याचार्यः सूत्राथां - वगमार्थं मुमुक्षुभिरासेव्यत इत्यर्थः तद्विघश्चासा - से सम्पन्न — और महाविषया - समस्त द्रव्यादिकों को विषय करनेवाली है। इस प्रकार की वह जिनाज्ञा नय, भंग, प्रमाण और गम से गम्भीर होने के कारण मन्दबुद्धि जनों को दुरवबोध है। वस्तु अनेक धर्मात्मक है, उनमें से जो विवक्षावश किस एक धर्म को ग्रहण किया करता है उसका नाम नय है, वह नंगमादि के भेद से अनेक प्रकार का है। क्रम व स्थान के भेद से जो अनेक भेद होते हैं उन्हें भंग कहा जाता है । क्रमभंग जैसे – एक जीव, एक प्रजीव, बहुत जीव बहुत श्रजीव, एक जीव एक अजीव; इत्यादि ( षट्खण्डागम पु. ६, पृ. २४६; अनुयोगद्वार पृ. १४४ - ४५ ) । स्थानभंग जैसे—कोई प्रियधर्मा तो होता है, पर दृढ़धर्मा नहीं होता; इत्यादि । जिनके द्वारा ज्ञातव्य वस्तु के मान का परिज्ञान होता है वे द्रव्य, क्षेत्र एवं काल आदि प्रमाण कहलाते हैं । चतुर्विंशतिदण्डक आदि को गम कहा जाता है। ऐसी उस अनुपम जिनवाणी के चिन्तन के लिये यहाँ प्रेरणा की गई हैं ॥४५-४६ ॥ अब आगे यह स्पष्ट किया जाता है कि उक्त जिनाज्ञा (जिनागम) यद्यपि कई कारणों से मन्दबुद्ध जन के लिये दुरवबोध है, तो भी बुद्धिमान् प्राणी को 'सर्वज्ञ का मत यथार्थ है' इस प्रकार से उसका चिन्तन करना ही चाहिए बुद्धि की दुर्बलता से, वस्तुस्वरूप का यथार्थ व्याख्यान करनेवाले श्राचार्यों के प्रभाव से, ज्ञेय ( जानने के योग्य धर्मास्तिकायादि) की गम्भीरता से, ज्ञानावरण के उदय से तथा जिज्ञासित पदार्थ के

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