Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
View full book text
________________
ध्यानस्तवः
[१४
प्रकार का है। उसकी उत्तर प्रकृतियां अनेक हैं। जीव के साथ सम्बन्ध होने पर जो उनका फलदानशक्ति के रूप में अनेक प्रकार का विपाक होता है उस सबका विचार करना, यह उस धर्म का तीसरा भेद है। अपोलोक, मध्यलोक मौर ऊर्ध्वलोक में विभक्त लोक के प्राकार प्रादि के साथ उसमें स्थित नारक, मनुष्य-तियंच एवं देवों आदि के दुख-सुख का विचार उस धर्म के चौथे भेद में किया जाता है। इस प्रकार चार भेदों में विभक्त उस धर्म से युक्त जो चिन्तन होता है उसे घHध्यान कहा जाता है। ध्येयस्वरूप उस धर्म के भेद से वह धर्म्यध्यान भी चार प्रकार का है-प्राज्ञाविचय, अपायविषय, विपाकविचय और संस्थानविचय ।
प्रकारान्तर से वह धर्म उत्तम क्षमा, मार्दव, प्रार्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, माकिंवन्य और ब्रह्मचर्य के भेद से दस प्रकार का भी है। इन सबका विचार भी धर्म्यध्यान में किया जाता है।
जीवादि पदार्थों में जिसका जो स्वरूप या स्वभाव है उसे भी धर्म कहा जाता है। यह धर्म का व्यापक स्वरूप है। इस धर्म का भी धर्म्यध्यानी अनेक प्रकार से चिन्तन किया करता है ॥१२-१३॥
मागे अन्य प्रकार से भी उस धर्म और उससे अनपेत धर्म्यध्यान के स्वरूप का निर्देश करते हुए वह किनके होता है, इसे स्पष्ट किया जाता हैसदृष्टिज्ञानवृत्तानि मोहक्षोभविवजितः। यश्चात्मनो भवेद् भावो धर्मः शर्मकरो हि सः॥ अनपेतं ततो धर्माद् धर्मध्यानमनेकधा । शमकक्षपकयोः प्राक् श्रेणिभ्यामप्रमत्तके ॥१५॥ मुख्यं घयं प्रमत्तादित्रये गौणं हि तत्प्रभो। धर्म्यमेवातिशुद्धं स्याच्छुक्लं श्रेण्योश्चतुर्विधम् ॥
जीव का मोह के क्षोभ से रहित जो भाव (परिणति) होता है उसका नाम धर्म है और वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यकचारित्रस्वरूप होकर सुख का-मोक्षसुख का कारण है। उस धर्म से अनपेत घHध्यान भी अनेक प्रकार का है। हे प्रभो! वह धर्म्यध्यान मुख्यरूप से उपशमक और क्षपक की श्रेणियों से-उपशमणि और क्षपकणि से–पहिले अप्रमत्तसंयत (सातवें) गुणस्थान में होता है तथा गौणरूप से वह प्रमत्तादि तीन–प्रमत्तसंयत, संयतासंयत और प्रसयतसम्यग्दृष्टि (६, ५, ४)-गुणस्थानों में होता है। अतिशय विशुद्धि को प्राप्त हुआ वह धर्म्यध्यान ही शुक्लध्यान होता है। वह चार प्रकार का है, जो दोनों श्रेणियों में-उपशमणि के अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय और उपशान्तमोह गुणस्थानों में तथा क्षपकणि के प्रपूर्वकरण, मनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय और क्षीणमोह गुणस्थानों में होता है ॥१४-१६।। . पागे तीन श्लोकों में शक्लध्यान के उक्त चार भेदों में प्रथम दो भेदों का निर्देश करते हुए उनके स्वरूप व स्वामियों को दिखलाते हैंसवितर्क सवीचारं सपृथक्त्वमुदाहृतम् । प्राधं शुक्ल द्वितीयं तु विपरीतं वितर्कभाक् ॥१७ श्रुतज्ञानं वितर्कः स्याद्योगशब्दार्थसंक्रमः । वीचारोऽथ विभिन्नार्थभासः पृथक्त्वमीडितम् ।। श्रुतमूले विवर्तेते ध्येयार्थे पूर्ववेदिनोः । उक्ते शुक्ले यथासंख्यं त्र्येकयोगयुजोविभो॥१६॥
प्रथम शुक्लध्यान वितर्क, वीचार और पृथक्त्व से सहित तथा दूसरा शुक्लध्यान इससे विपरीतवीचार और पृथक्त्व से रहित-होता हुमा वितर्क से सहित है। वितर्क का अर्थ श्रुतज्ञान है। योग, शब्द और अर्थ के संक्रम (परिवर्तन) को वीचार कहते हैं। विभिन्न अर्थ का जो प्रतिभास होता है उसे पृथक्त्व कहा मया है । हे प्रभो! उक्त दोनों शुक्लध्यान अपने ध्येय अर्थ के विषय में श्रुत के प्राश्रित होकर यथाक्रम से तीन योगवाले व एक ही योगवाले पूर्ववित्-अङ्ग-पूर्वश्रुत के ज्ञाता (श्रुतकेवली)-के होते हैं।