Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir

View full book text
Previous | Next

Page 184
________________ ध्यानस्तवः [३८वह अपना मानता है। 'यह मेरा है और मैं इसका स्वामी हूं' इस प्रकार की ममकार और अहंकार बुद्धि से ग्रसित होने के कारण वह धर्म से पराङ्मुख रहता है। इसीलिए यहां यह कहा गया है कि बहिरात्मा जीव अज्ञान के वशीभूत होने से अपने शुद्ध स्वरूप का अनुभव नहीं कर सकता है ॥३७॥ प्रागे दो श्लोकों में अन्तरात्मा के स्वरूप को दिखलाते हुए यह कहा जा रहा है कि वह प्रात्मस्वरूप के देखने में समर्थ होता है पदार्थान् नव यो वेत्ति सप्त तत्त्वानि तत्त्वतः । षड्द्रव्याणि च पञ्चास्तिकायान् देहात्मनोभिदाम् ॥३८॥ प्रमाणनयनिक्षेपैः सददष्टिज्ञानवत्तिमान । सोऽन्तरात्मा सदा देव स्यात्त्वां दृष्टमलं क्षमः॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र से संयुक्त जो जीव प्रमाण, नय और निक्षेप के आश्रय से नौ पदार्थों, सात तत्त्वों, छह द्रव्यों, पांच प्रस्तिकायों और शरीर व प्रात्मा के भेद को यथार्थरूप में जानता है उसे अन्तरात्मा कहा जाता है और वह हे देव ! सदा ही आपके देखने में समर्थ रहता है। इसे सम्यग्दर्शन का माहात्म्य समझना चाहिए ॥३८-३६॥ अब उपर्युक्त नौ पदार्थों के नामों का निर्देश किया जाता हैजीवाजोवौ च पुण्यं च पापमानवसंवरौ । निर्जरा बन्धमोक्षौ च पदार्था नव संमताः ॥४० जीव, अजीव, पुण्य, पाप, पासव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये नौ पदार्थ माने गये हैं ॥४०॥ प्रागे उक्त नौ पदार्थों का निरूपण करते हुए प्रथमतः जीव का स्वरूप कहा जाता है- चेतना लक्षणस्तत्र जीवो देव मते तव। चेतनानुगता सा च ज्ञानदर्शनयोस्तथा ॥४१॥ हे देव ! आपके मत में जीव का लक्षण चेतना माना गया है। वह चेतना ज्ञान और दर्शन में मनगत है। अभिप्राय यह है कि जीव का लक्षण जानना और देखना है। जामने और देखने रूप वह चेतना ज्ञान और दर्शन के भेद से दो प्रकार की है॥४१॥ इसे प्रागे और भी स्पष्ट किया जाता हैजीवारब्धक्रियायां च सुखे दुःखे च तत्फले। यथासम्भवमीशेयं वर्तते चेतना तथा ॥४२॥ हे ईश! यह चेतना यथासम्भव जीव के द्वारा प्रारम्भ की गई क्रिया और उसके फलस्वरूप सुख • व दुःख में रहती है । अभिप्राय यह है कि जीव के द्वारा जो भी कार्य प्रारम्भ किया जाता है वह या तो - सुख का कारण होता है या दुख का कारण होता है। किस प्रकार के कार्य से सुख होता है और किस प्रकार के कार्य से दुख होता है, यह विचार करना चेतना का कार्य है ॥४२॥ अब ज्ञान के स्वरूप और उसके भेदों का निर्देश किया जाता हैप्रतिभासो हि यो देव विकल्पेन तु वस्तुनः । ज्ञानं तदष्टधा प्रोक्तं सत्यासत्यार्थमेदभाक् ॥ हे देव ! यह घट है अथवा पट है, इस प्रकार के विकल्प के साथ जो वस्तु का प्रतिभास (बोष) होता है उसे ज्ञान कहते हैं। सत्य और असत्य प्रर्य को विषय करने के कारण वह ज्ञान सामान्य से दो प्रकार का है-सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान । वही ज्ञान विशेषरूप से पाठ प्रकार का है॥४३॥ . मागे दो श्लोकों में उन माठ भेदों का निर्देश किया जाता हैमतियुक्तं श्रुतं सत्यं समनःपर्ययोऽवधिः । केवलं चेति सत्यार्थ सद्दष्टेानपञ्चकम् ॥४४ कुमतिः कुश्रुतज्ञानं विभङ्गाख्योऽवधिस्तथा । ज्ञानत्रयमिदं देव मिथ्यादृष्टिसमाश्रयम् ॥४५ - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, प्रवपिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये पांच भेद सत्य अर्थ के विषय करने वाले सम्यग्ज्ञान के हैं। यह पांच प्रकार का सम्यग्ज्ञान सम्यग्दृष्टि जीव के होता है। कुमति, कुभुत और विभंग प्रवषि ये तीन ज्ञान मिथ्याइष्टि के मामय से रहने वाले मिथ्याज्ञान हैं। उक्त पांच सम्यम्

Loading...

Page Navigation
1 ... 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200