Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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ध्यानस्तवः
[२३जिसका समस्त मोहनीय कर्म नष्ट हो चुका है उसके अनेक पदार्थों का प्राश्रय लेने वाली चिन्ता नहीं होती है। ऐसी अवस्था में उस चिन्ता का निरोष हो जाने पर जो ध्यान होता है वह हे प्रभो! सर्वज्ञ के-सयोग व प्रयोग केवली के-कैसे हो सकती है ? ॥२२॥
इसका समाधानयोगरोधो जिनेन्द्राणां देशतः कात्य॑तोऽपि वा। भूतपूर्वगतेर्वा तद् ध्यानं स्यादौपचारिकम् ॥
जिनेन्द्रों के एक देशरूप से अथवा सर्वदेशरूप से भी जो योगों का निरोष होता है वही उनका ध्यान है । अथवा भूतपूर्वगति-भूलप्रज्ञापन नय की अपेक्षा-उपचार से उनके ध्यान जानना चाहिए ।
विवेचन-चिन्ता का जो निरोष होता है वह ध्यान है, यह पूर्व में कहा जा चुका है। सयोगकेवली और प्रयोगकेवली के मन के न रहने से यद्यपि वह चिन्तानिरोधस्वरूप ध्यान सम्भव नहीं है, फिर भी उनके क्रम से अल्प व पूर्ण रूप में जो योगों का निरोष होता है उसे ही उनके उपचार से ध्यान माना गया है । अथवा जिस प्रकार दण्ड के द्वारा कुम्हार के चाक के एक बार घुमा देने पर कुछ समय तक वह दण्ड के प्रयोग के विना भी घूमता रहता है उसी प्रकार पूर्व में मन का सद्भाव रहने पर जो चिन्ता रही है उसका उस मन के प्रभाव में भी पूर्व प्रयोग की अपेक्षा उपचार से सदभाव समझना चाहिए। इस प्रकार चिन्ता के प्रभाव में भी उक्त दोनों केवलियों के उपचार से ध्यान माना गया है ॥२३॥
प्रागे उस ध्यान के अन्य चार भेदों का भी निर्देश किया जाता हैउक्तमेव पुनर्देव सर्व ध्यानं चतुर्विधम् । पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवजितम् ॥२४
हे देव ! पूर्व में निर्दिष्ट वही सब ध्यान चार प्रकार का है-पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपवजित (रूपातीत) ॥२४॥
अब उनमें से प्रथमतः पिण्डस्थ ध्यान का स्वरूप चार श्लोकों में कहा जाता हैस्वच्छस्फटिकसंकाशव्यक्तादित्यादितेजसम् । दूराकाशप्रदेशस्थं संपूर्णोदप्रविग्रहम् ॥२५ सर्वातिशयसंपूर्ण प्रातिहार्यसमन्वितम् । परमात्मानमात्मानं भव्यानन्दविधायिनम् ॥२६ विश्वज्ञ विश्वदृश्वानं नित्यानन्तसुखं विभुम् । अनन्तवीर्यसंयुक्तं स्वदेहस्थमभेदतः ॥२७ वहन्तं सर्वकर्माणि शुद्धद्धध्यानवह्निना । त्वामेव ध्यायतो देव पिण्डस्थध्यानमीडितम् ॥२८
हे देव ! निर्मल स्फटिक मणि के समान होने से जिस आपके परमौदारिक शरीर का तेज सूर्य मादि के समान प्रगट हो रहा है, जो दूरवर्ती प्राकाश के प्रदेशों में निराधार स्थित है' समचतुरस्रसंस्थान से युक्त होने के कारण जिनका शरीर सम्पूर्ण सुन्दर है, जो समस्त (३४) अतिशयों से परिपूर्ण हैं, पाठ प्रातिहार्यों से सुशोभित हैं, जिनकी आत्मा परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर चुकी है, जो भव्य जीवों को मानन्द के करने वाले हैं, विश्व के ज्ञाता व द्रष्टा हैं, शाश्वतिक अनन्त सुख से सहित हैं, ज्ञान की अपेक्षा सर्वव्यापक हैं, अनन्त वीर्य से संयुक्त हैं, प्रभेदरूप से अपने शरीर में स्थित हैं, तथा जो निर्मल उद्दीप्त ध्यानरूप अग्नि के द्वारा समस्त कर्मों के जलाने वाले हैं; ऐसे प्रापका ही- सर्वज्ञ व वीतराग जिन देव का ही-जो ध्यान करता है उसके पिण्डस्थध्यान कहा गया है ॥२५-२८॥
प्रागे दूसरे पदस्थध्यान का स्वरूप कहा जाता हैतव नामपदं देव मंत्रमैकाग्र्यमीर्यतः । जपतो ध्यानमाम्नातं पदस्थं त्वत्प्रसादतः ॥२६
हे देव ! तुम्हारे प्रसाद से जो एकाग्रता को प्राप्त होकर आपके नामपद का नाम के अक्षरस्वरूप मंत्र का जाप करता है उसके पदस्थध्यान कहा गया है। अभिप्राय यह है कि प्रकृत पवस्थध्यान . १. केवलज्ञान के उत्पन्न होने पर जिन देव का शरीर पृथिवी से पांच हजार धनुष ऊपर चला
जाता है। ति. प. ४-७०५.