Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 188
________________ १६ ध्यानस्तवः नोल, पीत, हरित और रक्त इन पांच वर्णो से; खट्टा, मीठा, कड़वा, कवायला और तीखा इन पांच रसों से; तथा सुगन्ध और दुर्गन्ध इन दो गन्धों से; इस प्रकार इन बीस गुणों से सहित होते हैं उन्हें पुद्गल कहते हैं । वे स्कन्ध और प्रणु के भेद से दो प्रकार के हैं। इनमें जिसका दूसरा खण्ड नहीं हो सकता है ऐसे पुदगल के सबसे छोटे अंश को प्रण और दो या दो से अधिक अणनों के संयोग यक्त पुदगलों को स्कन्ध कहा जाता है ॥६॥ आगे उक्त पुदगलों की और भी कुछ विशेषता प्रगट की जाती हैस्थूला ये पुद्गलास्तत्र शब्दबन्धादिसंयुताः । जीवोपकारिणः केचिदन्येऽन्योऽन्योपकारिणः॥ ___ वे पुद्गल स्थूल और सूक्ष्म के भेद से दो प्रकार भी हैं । इनमें जो स्थूल पुद्गल हैं उन में से कितने ही शब्द व बन्ध मादि (स्थूल, सूक्ष्म, संस्थान, भेद, तम, छाया और प्रातप) से सहित होते हुए जीवों का उपकार करने वाले हैं उनके सुख-दुःख एवं जीवन-मरण आदि के कारण हैं। कुछ दूसरे पुद्गल परस्पर में भी एक दूसरे का उपकार करने वाले हैं-जैसे राख वर्तनों का एवं सोडा-साबुन वस्त्रों का इत्यादि ॥६१॥ अब उपर्युक्त छह द्रव्यों में क्रिया युक्त द्रव्यों का निर्देश करते हुए धर्म व अधर्म द्रव्यों का स्वरूप कहा जाता हैजीवाः पुद्गलकायाश्च सक्रिया वणिताः जिनः। हेतुस्तेषां गतेधर्मस्तथाधर्मः स्थितेर्मतः॥६२ उक्त द्रव्यों में जीवों और पुद्गलों को जिन देव ने क्रिया (परिस्पन्दादि) सहित कहा है। उन जीव और पुदगलों के गमन का जो कारण है उसे धर्मद्रव्य और उनकी स्थिति का जो कारण है उसे अधर्म द्रव्य माना जाता है ।।६२॥ प्रागे प्राकाश द्रव्य के स्वरूप व उसके भेदों का निर्देश किया जाता है· यद् द्रव्याणां तु सर्वेषां विवरं दातुमर्हति । तदाकाशं द्विधा ज्ञयं लोकालोकविभेदतः। जो अन्य द्रव्यों के लिए भी विवर (छिद्र-अवकाश) देने के योग्य है उसका नाम प्रकाश है। उसे लोकाकाश और प्रलोकाकाश के भेद से दो प्रकार जानना चाहिए। जहां तक जीवादि द्रव्य पाये जाते हैं उतने प्राकाश को लोकाकाश और शेष अनन्त आकाश को अलोकाकाश कहा जाता है ॥६३॥ अब काल द्रव्य का लक्षण कहा जाता हैवर्तनालक्षणः कालो मुख्यो देव तवागमे । अर्थक्रियात्मको गौणो मुख्यकालस्य सूचकः ॥६४ हे देव ! आपके पागम में जिसका लक्षण वर्तना है उसे मुख्य काल कहा गया है तथा अर्थक्रियास्वरूप जो काल है वह गौण काल है और वह मुख्य काल का सूचक है। विवेचन-जो वर्तते हुए पदार्थों के वर्तन में उदासीन कारण है. वह काल कहलाता है। वह निश्चय और व्यवहार के भेद से दो प्रकार का है । निश्चयकाल का लक्षण वर्तना-वस्तुपरिणमन का सहकारी कारण होना है। वह अणुस्वरूप है। लोकाकाश के जितने (असंख्यात) प्रदेश हैं उतने ही वे कालाणु हैं जो लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर रत्नराशि के समान पृथक-पृथक् स्थित हैं। उस मुख्य (निश्चय) काल की पर्यायस्वरूप जो समय व घटिका आदि रूप काल है उसे व्यवहार काल कहा जाता है॥६४॥ इस प्रकार छह द्रव्यों का निरूपण करके अब उनमें प्रस्तिकाय द्रव्यों का निर्देश किया जाता हैद्रव्यषटकमिदं प्रोक्तं स्वास्तित्वादिगुणात्मकम् । कायाख्यं बहुदेशत्वाज्जीवादीनां तु पञ्चकम् ॥ ये छह द्रव्य अपने अस्तित्व-वस्तुत्वादि गुणों स्वरूप कहे गये हैं। उनमें काल को छोड़कर जीवादि पांच द्रव्य बहुत प्रदेशों से युक्त होने के कारण काय कहे जाते हैं ॥६॥ मागे काल द्रव्य काय क्यों नहीं है, इसे स्पष्ट किया जाता है

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