Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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सप्ततत्त्वानां षड्द्रव्याणां च प्ररूपणा मोक्ष का स्वरूपबन्धहेतोरभावाच्च निर्जराभ्यां स्वकर्मणः । द्रव्यभावस्वभावस्य विनाशो मोक्ष इष्यते ॥५६
बन्ध के कारणभूत मिथ्यात्वादि (मानव) के प्रभावरूप संवर से तथा द्रव्य-भावरूप दोनों प्रकार की निर्जरा से जो द्रव्य व भाव रूप अपने कर्म का विनाश होता है उसका नाम मोक्ष है। अभिप्राय यह है कि समस्त कर्म-पुद्गलों का प्रात्मा से पृथक् हो जाना, इसे मोक्ष कहा जाता है। वह द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का है। जिस परिणाम के द्वारा राग-द्वेषादिरूप भाव कर्म का विनाश होता है उसे भावमोक्ष कहते हैं तथा द्रव्य कर्मों के विनाश का नाम द्रव्यमोक्ष है ॥५६॥
इस प्रकार नौ पदार्थों का निरूपण करके आगे उनके अन्तर्गत सात तत्त्वों को कहा जाता हैपदार्था एव तत्त्वानि सप्त स्युः पुण्यपापयोः। अन्तर्भावो यदाभीष्टो बन्ध आस्रव एव वा॥
जब बन्ध अथवा प्रास्रव में ही पुण्य व पाप का अन्तर्भाव अभीष्ट हो तब पूर्वोक्त नौ पदार्थ ही सात तत्त्व ठहरते हैं।
विवेचन-पूर्व (३८) में नौ पदार्थों और सात तत्त्वों का पृथक् पृथक् निर्देश किया गया है। तदनुसार नौ पदार्थों का निरूपण कर देने पर वे सात तत्व कौन से हैं, यह प्राशंका हो सकती थी।. उसके समाधान स्वरूप यहां यह कहा जा रहा है कि उन नौ पदार्थों से पृथक् सात तत्त्व नहीं है, किन्तु वे उन्हीं के अन्तर्गत हैं । यथा-जीव, अजीव, प्रास्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये सात तत्त्व माने गये हैं। इनमें से प्रास्रव और बन्ध में पूर्वोक्त नौ पदार्थों के अन्तर्गत पुण्य का और पाप का अन्तर्भाव कर देने पर वे नौ पदार्थ ही सात तत्त्व ठहरते हैं। कारण यह कि द्रव्य और भावरूप शुभाशुभ कर्म का
ण्य पोर पाप है। वे उक्त दोनों प्रकार के प्रास्रव व बन्ध स्वरूप ही हैं, उनसे भिन्न नहीं हैं ॥१७॥
प्रागे छह द्रव्यों की प्ररूपणा करते हुए प्रथमतः उनके नामों का निवेश किया जाता हैजीवः सपुद्गलो धर्माधर्मावाकाशमेव च । कालश्चेति समाख्याता द्रव्यसंज्ञा त्वया प्रभो॥
पूर्वनिर्दिष्ट वह जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इनका निर्देश हे प्रभो! मापने द्रव्य नाम से किया है-ये छह द्रव्य कहे गये हैं ॥५८।।
अब उनमें से पहिले जीव का स्वरूप कहा जाता हैप्राणधारणसंयुक्तो जीवोऽसौ स्यादनेकधा। द्रव्यभावात्मकाःप्राणाः द्वधा स्युस्ते विशेषतः॥
जो प्राणों को धारण करता है उसे जीव कहते हैं । वह अनेक प्रकार का है। प्राण द्रव्य और भाव स्वरूप दो प्रकार के हैं, विशेषरूप से वे दस हैं-पांच इन्द्रियां, तीन बल, आयु और श्वासोच्छ्वास ॥
विवेचन-जिनके पाश्रय से प्राणी जीवित रहता है उन्हें प्राण कहा जाता है। वे सामान्य से चार हैं- इन्द्रिय, बल, पायु और श्वासोच्छवास । इनमें इन्द्रियां पांच हैं-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र । मन, वचन और काय के भेद से बल तीन प्रकार का है। इस प्रकार विशेषरूप से वे दस हो जाते हैं-५ इन्द्रियां, ३ बल, प्रायु और श्वासोच्छवास। इनमें से एकेन्द्रिय जीव के स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, पायु और श्वासोच्छवास ये चार प्राण पाये जाते हैं। इनके अतिरिक्त द्वीन्द्रिय जीवों में रसना इन्द्रिय और वचन बल इन दो के अधिक होने से छह प्राण, तीन इन्द्रिय जीवों के एक घ्राण इन्द्रिय के अधिक होने से सात प्राण, चार इन्द्रिय जीवों के एक चक्षु इन्द्रिय के अधिक होने से पाठ प्राण, असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के एक श्रोत्र इन्द्रिय के अधिक होने से नौ प्राण और संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के एक मन के अधिक होने से दस प्राण पाये जाते हैं। ये प्राण द्रव्य-भाव के भेद से दो प्रकार भी हैं। इनमें द्रव्यइन्द्रियों प्रादि को द्रव्यप्राण और भाव इन्द्रियों आदि को भावप्राण जानना चाहिए ॥५६॥
पुद्गल द्रव्य का स्वरूपस्पर्शाष्टकेन संयुक्ता रसैर्वणश्च पञ्चभिः । द्विगन्धाभ्यां यथायोगं द्वधा स्कन्धाणुभेदतः॥
जो यथासम्भव शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, मृदु, कठोर, लघु और गुरु इन पाठ स्पर्शो से; श्वेत,