Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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निक्षेपविचारः करता है उसे पर्यायाथिक नय कहा जाता है-जैसे संसारी प्रात्मा कर्म-मल से लिप्त रहने के कारण मशुद्ध है, इत्यादि।
जिस प्रकार सर्वदेशग्राही प्रमाण श्रुत के विकल्परूप है उसी प्रकार एक देश के विषय करने वाले
ब नयों को भी श्रुत के विकल्पभूत समझना चाहिए। कारण यह कि विचारात्मक एक श्रतज्ञान ही है, अन्य कोई भी ज्ञान विचारात्मक नहीं है ॥६६.७२।।
मागे क्रमप्राप्त निक्षेप का स्वरूप कहा जाता हैजीवादीनां च तत्त्वानां ज्ञानादीनां च तत्त्वतः । लोकसंव्यवहारार्थ न्यासो निक्षेप उच्यते ॥
लोकव्यवहार के लिए जो यथार्थत: जीव-अजीवादि तत्त्वों और ज्ञान प्रादि का न्यास किया जाता है-प्रयोजन के वश नाम आदि रखे जाते हैं, इसे निक्षेप कहा जाता है ॥७३॥
अब उस निक्षेप के भेदों का निर्देश करते हुए उनका स्वरूप कहा जाता हैस च नामादिभिर्भेदैश्चतुर्भेदोऽभिधीयते । वाच्यस्य वाचकं नाम निमित्तान्तरजितम् ॥७४
वह निक्षेप नाम प्रादि (स्थापना, द्रव्य और भाव) के भेद से चार प्रकार का कहा जाता है । उनमें गुण, क्रिया व जाति प्रादि अन्य निमित्तों की अपेक्षा न करके अभिधेय पदार्थ का वाचक ( जो नाम रखा जाता है उसे नामनिक्षेप कहते हैं। जैसे-देव के द्वारा दिये जाने की अपेक्षा न करके किसी का 'देवदत्त' यह नाम रखना ॥७४॥
प्रागे क्रमप्राप्त स्थापना और द्रव्य निक्षेपों का स्वरूप कहा जाता हैप्रतिमा स्थापना ज्ञया भूतं भावि च केनचित् । पर्यायेण समाख्यातं द्रव्यं नयविवक्षया ॥७५
प्रतिमा को स्थापना निक्षेप जानना चाहिए । जो किसी विवक्षित पर्याय से हो चुका है या मागे होने वाला है उसे नयविवक्षा के अनसार द्रव्यनिक्षेप कहा जाता है।
विवेचन-स्थापना दो प्रकार की है-तदाकार (सद्भाव) स्थापना और प्रतदाकार (असद्भाव) स्थापना। जिनके प्राकार वाली प्रतिमा में जो जिन देव की स्थापना (कल्पना) की जाती है वह तदाकार स्थापना कहलाती है। जो स्थाप्यमान वस्तु के प्राकार में तो नहीं है, फिर भी प्रयोजन के वश उसमें वैसी कल्पना करना, इसे प्रतदाकार स्थापना कहते हैं। जैसे-हाथी-ऊंट प्रादि के प्राकार न होते हुए भी सतरंज की गोटों में उनकी कल्पना करना । जो मंत्री पद से मुक्त हो चुका है उसे तत्पश्चात्
भी मंत्री कहना, तथा प्रागे वस्त्ररूप में परिणत होने वाले तन्तुषों को बस्त्र कहना, इत्यादि को द्रव्यनिक्षेप कहा जाता है ॥७॥
प्रब निक्षेप के चौथे भेदभूत भावनिक्षेप का स्वरूप कहा जाता हैपर्यायेण समाकान्तं वर्तमानेन केनचित । द्रव्यमेव भवेद भावो विख्यातो जिनशासने ।
किसी (विवक्षित) वर्तमान पर्याय से युक्त द्रव्य को ही जिनागम में भावनिक्षेप कहा गया है। अभिप्राय यह है कि जो द्रव्य वर्तमान पर्याय में है उसे उसी पर्याय की मुख्यता से कहना, इसका नाम भावनिक्षेप है। जैसे-मंत्री जिस समय मंत्रणा का कार्य कर रहा है उसे उसी समय मंत्री कहना, अन्य समय में नहीं ॥७६।।
आगे मोक्षमार्ग का स्वरूप कहा जाता हैसम्यग्दर्शनविज्ञानचारित्रत्रितयात्मकः । मोक्षमार्गस्त्वया देव भव्यानामुपदर्शितः ॥७७
हे देव ! मापने भव्य जीवों के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीन स्वरूप मोक्ष का मार्ग दिखलाया है। अभिप्राय यह है कि रत्नत्रयरूप से प्रसिद्ध उक्त सम्यग्दर्शनादि मोक्षप्राप्ति के उपाय हैं ॥७७॥
__सम्यग्दर्शन का स्वरूपविपरीताभिमानेन शून्यं यद्रूपमात्मनः । तदेवोत्तममर्थानां तच्छ्रद्धानं हि दर्शनम् ॥७॥