Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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ध्यानस्तवः
[९२मागे यह बतलाते हैं कि उक्त सम्यग्दर्शनादि तीन समस्तरूप में ही मुक्ति के कारण हैं, व्यस्तरूप में नहींश्रद्धानादित्रयं सम्यक् समस्तं मोक्षकारणम् । भेषजालम्बनं यद्वत्तत्त्रयं व्याधिनाशनम् ॥१२॥
उक्त समीचीन श्रद्धानादि तीन (रत्नत्रय) समस्त होकर-तीनों एक रूप में होकर-ही मोक्ष के कारण हैं, न कि पृथक् रूप में एक, दो या तीन भी। जैसे-औषधि के पालम्बनभूत (औषधिविषयक) वे तीन-श्रद्धान, ज्ञान और प्राचरण-रोग के विनाशक हुमा करते हैं। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार प्रौषधि का श्रद्धान, ज्ञान और प्राचरण (उसका सेवन) ये तीनों सम्मिलित रूप में ही रोग के विनाशक होते हैं, न कि पृथक् रूप में; उसी प्रकार जीवादि तत्त्वविषयक श्रद्धान, ज्ञान और प्राचरण (चारित्र) ये तीन भी सम्मिलित रूप में ही कर्मरूप रोग के विनाशक होते हैं, पृथक रूप में नहीं ॥१२॥
अन्त में ग्रन्थकार ६ श्लोकों में प्रस्तुत ग्रन्थ का उपसंहार करते हुए स्तुतिविषयक अपनी अशक्यता को प्रगट कर स्तुति करने के कारण प्रादि को दिखलाते हैंअन्तातीतगुणोऽसि त्वं मया स्तुत्योऽसि तत्कथम् । ध्यानभक्त्या तथाप्येवं देव त्वय्येव जल्पितम् ।। यन्न तुष्यसि कस्यापि नापि कुप्यसि मुह्यसि । किंतु स्वास्थ्यमितोऽसीति स्तोतुं चाहं प्रवृत्तवान् । इत्येवं युक्तियुक्तार्थः प्रस्फुटार्थमनोहरैः । स्तोकरपि स्तवैर्दे वरदोऽसीति संस्तुतः ॥६॥
रुष्ट्वा तुष्ट्वा करोषि त्वं किंचिद्देव न कस्यचित् ।।
किन्त्वाप्नोति फलं मर्त्यस्त्वय्येकानमनाः स्वयम् ॥१६॥ इति संक्षेपतः प्रोक्तं भक्त्या संस्तवभर्मणा । किचिज्ज्ञन मया किंचिन्न कवित्वाभिमानतः॥ यन्मेऽत्र स्खलितं किंचिच्छद्मस्थस्यार्थशब्दयोः। तत्संवित्त्यैव सौजन्याच्छोध्यं शुद्धद्धबुद्धिभिः॥
हे देव ! पाप अनन्त गुणों से युक्त है, ऐसी स्थिति में मैं प्रापकी स्तुति कसे कर सकता हूं? फिर भी मैंने आपके विषय में जो स्तुतिरूप से इस प्रकार कहा है वह ध्यानभक्ति से-ध्यानविषयक अनुराग के वश–ही कहा है। हे देव ! यतः आप किसी के प्रति न सन्तुष्ट होते हैं, न रुष्ट होते हैं, और न मोहित होते हैं, किन्तु स्वस्थता (मात्मस्थिति) को प्राप्त हैं; इसी से मैं आपकी स्तुति करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूं। हे देव ! इस प्रकार से मैंने युक्ति युक्त अर्थ से परिपूर्ण एवं स्पष्ट अर्थ वाले मनोहर थोड़े से ही स्तवनों के द्वारा 'पाप वरद हैं-अभीष्ट सर्वश्रेष्ठ मुक्ति के दाता हैं' इस हेतु से स्तुति की है। हे देव ! पाप क्रुद्ध अथवा सन्तुष्ट होकर किसी का कुछ भी अहित या हित नहीं करते हैं, फिर भी आपके विषय में एकाग्रचित्त हुमा मनुष्य-तन्मय होकर प्रापका स्मरण करने वाला भव्य जीव-स्वयं ही अभीष्ट फल को प्राप्त करता है। अल्पज्ञानी मैंने इस प्रकार से स्तुति के रूप में जो कुछ संक्षेप में कहा है वह भक्ति के वश होकर ही कहा है, कवित्व के अभिमान से नहीं कहा, अर्थात् 'मैं कवि हूं' इस प्रकार के अभिमान को प्रगट करने के लिए मैंने यह ध्यान का वर्णन नहीं किया है, किन्तु भक्ति से प्रेरित होकर ही उसे किया है। मैं अल्पज्ञ हूं, इसीलिए यदि अर्थ अथवा शब्द के विषय में इस वर्णन में कुछ स्खलित हुमा हं तो निर्मल व तीक्ष्ण बुद्धि वाले विद्वान् सुजनता वश उसे अपने समीचीन ज्ञान के द्वारा शुद्ध कर लें ॥६३.९८॥ अन्तिम प्रशस्ति
नो निष्ठीवेन्न शेते वदति च न परं एहि याहीति जातु नो कण्डूयेत गात्रं व्रजति न निशि नोद्घाटयेद् द्वा दत्ते । नावष्टम्नाति किंचिद् गुणनिधिरिति यो बद्धपर्यंकयोगः
कृत्वा संन्यासमन्ते शुभगतिरभवत्सर्वसाधुः प्रपूज्यः ॥६६॥ जो न थूकता है, न सोता है, न कभी दूसरे को 'मानो व जागो' कहता है, न शरीर को खुजलाता है, न रात्रि में गमन करता है, न द्वार को खोलता है, न उसे देता है-बन्न करता है, और न