Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 186
________________ ध्यानस्तवः [ ५३ विवेचन - जिस प्रकार नाव में छेद के हो जाने पर उसके भीतर पानी प्राने लगता है उसी प्रकार जीव के जिन परिणामों के निमित्त से कर्मों का श्रागमन होता है उन्हें भ्रात्रव कहते हैं। यह चालव भी भाव और द्रव्य के भेद से दो प्रकार का है। मिथ्यात्व व अविरति प्रादिरूप जिन परिणामों के श्राश्रय से कर्मों का श्रागमन हुआ करता है उनका नाम भावालव है तथा उन परिणामों के द्वारा जो द्रव्य कर्मों का श्रागमन होता है उसका नाम द्रव्यात्रव है। यह श्रात्रव योगस्वरूप है ॥ ५२ ॥ १४ संवर का स्वरूप - श्रावस्य निरोधो यो द्रव्यभावाभिधात्मकः । तपोगुप्त्यादिभिः साध्यो नैकधा संवरो हि सः ॥ मानव के निरोध का नाम संवर है । वह द्रव्य व भाव स्वरूप होने से दो प्रकार का है जो तप व गुप्तियों आदि के द्वारा सिद्ध किया जाता है। इस प्रकार से वह अनेक भेद वाला है | विवेचन -- नवीन कर्मों के श्रागमन के रुक जाने का नाम संबर है। वह भी द्रव्य व भाव के भेद से दो प्रकार का है। जिन सम्यक्त्वादि परिणामों के द्वारा श्राते हुए कर्म रुक जाते हैं उन्हें भावसंवर कहा जाता है । उक्त परिणामों के श्राश्रय से प्राते हुए द्रव्य कर्मों का जो निरोध हो जाता है, इसे द्रव्यसंवर जानना चाहिए। गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा और परीषहजय ये उस संवर के साधन हैं । मन, वचन और काय योगों के निग्रह को गुप्ति कहते हैं । गमनागमनादिविषयक समीचीन ( निरवद्य) प्रवृत्ति का नाम समिति है । वह ईर्या भाषा श्रादि के भेद से पांच प्रकार की है। जो दुख से हटा कर सुखस्थान (मोक्ष) को प्राप्त कराता है वह धर्म कहलाता है। इसका स्वरूप पहिले कहा जा चुका है (१२-१४) । बार-बार चिन्तन का नाम अनुप्रेक्षा है। वह अनित्य व प्रशरण श्रावि भेद से बारह प्रकार की है। क्षुधा एवं तृषा ( प्यास) आदि की वेदना के उपस्थित होने पर उसे कर्मोदयजनित जानकर निराकुलतापूर्वक सहन करना व संयम से च्युत न होना, इसका नाम परीषहजय है । वह क्षुधा तृषा प्रादि के भेद से बाईस प्रकार का है । निन्द्य श्राचरण को छोड़कर सदाचार में प्रवृत्त होना, इसे चारित्र कहते हैं । वह सामायिक आदि के भेद से पांच प्रकार का है। इन गुप्ति समितियों श्रादि के अनेक प्रकार होने से वह संवर भी अनेक प्रकार का है ।।५३ || निर्जरा का स्वरूप - तपोयथास्वकालाभ्यां कर्म यद् भुक्तशक्तिकम् । नश्यत्तन्निर्जराभिख्यं चेतनाचेतनात्मकम् ॥ तप और अपने परिपाककाल के श्राश्रय से जिसकी शक्ति को अनुभाग को-भोगा जा चुका है ऐसा कर्म-युद्गल जो विनाश को प्राप्त होता है उसका नाम निर्जरा है। वह चेतन व प्रचेतन स्वरूप है ।। विवेचन - श्रात्मा से सम्बद्ध कर्म- पुद्गल का उससे पृथक होना, इसे निर्जरा कहते हैं। वह भाव और द्रव्य के भेद से दो प्रकार की है । जिस प्रकार श्राम श्रादि फलों को पाल में देकर उनके स्वाभाविक पाककाल से पहिले ही पका लिया जाता है उसी प्रकार तपश्चरण के द्वारा जो कर्म को भी अपनी स्थिति के पूर्व में ही परिपाक को प्राप्त कराकर उदय में लाया जाता है उसे भावनिर्जरा कहते हैं। वे ही कर्म अपनी स्थिति के पूर्ण होने पर फल को देकर जो निर्जीणं होते हैं, इसे द्रव्यनिर्जरा कहा जाता है ॥ ५४ ॥ बन्य का स्वरूप - जीवकर्मप्रदेशानां यः संश्लेषः परस्परम् । द्रव्यबन्धो भवेत् पुंसो भावबन्धः सदोषता ॥५५ जीव और कर्म के प्रदेशों का जो संश्लेष - परस्पर एक क्षेत्रावगाहरूप संयोग होता है उसे बन्ध कहते हैं। वह भी द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का है। उक्त प्रकार से कर्मप्रदेशों का जीव के प्रदेशों के साथ सम्बद्ध होना, इसका नाम द्रव्यबन्ध है तथा जीव के जिस सदोष परिणाम के द्वारा वे कर्म-पुद्गल उससे सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं उसे भावबन्ध कहा जाता है ।। ५५॥

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