Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 179
________________ -१३] प्रार्त-रौद्र-धर्म्यध्यानानां स्वरूपम् है। उक्त चार प्रकार के प्रार्तध्यान में गृहस्थ के तो वे चारों ही हो सकते हैं, किन्तु मुनि के निदान नहीं होता-शेष तीन उसके भी हो सकते हैं। यह दुर्ध्यान तियंचगति का कारण है ॥६.१०॥ मागे रौद्रध्यान के स्वरूप व उसके स्वामी का निर्देश किया जाता हैहिंसनासत्यचौर्यार्थरक्षणेभ्यः प्रजायते । क्रूरो भावो हि यो हिंस्रो रौद्रं तद् गहिणो मतम् ॥ हिंसा, प्रसत्य, चोरी और धनसंरक्षण के लिए जो हिंसाजनक क्रूर भाव होता है वह रौद्रध्यान कहलाता है और वह गृहस्थ के माना गया है-मुनि के वह नहीं होता है । विवेचन-'रोदयति परान् इति रवः' इस निरुक्ति के अनुसार जो दूसरों को रुलाता है उसे रुद्र कहा जाता है। तदनसार कर प्राणी अथवा दुख के कारण को रुद्र समझना चाहिए। इस प्रकार कर प्राणी के द्वारा किये जाने वाले कार्य का नाम रौद्रध्यान है। वह विषय (ध्येय) के भेद से चार प्रकार का है-हिसानुबन्धी, मषानुबन्धी, स्तेयानुबन्धी पौर विषयसंरक्षणानुबन्धी। दूसरे प्राणियों के वध. बन्धन प्रादि का बो निरन्तर विचार रहता है, यह प्रथम (हिसानुबन्धी) रौद्र ध्यान है। असत्य, असभ्य अथवा जिससे दूसरे प्राणी को दुख पहुंचने वाला हो ऐसे वचन के बोलने की जो प्रवृत्ति होती है उसे मुषानुबन्धी रौद्रध्यान कहते हैं। अतिशय क्रोध अथवा लोभ के वश होकर जो दूसरे के द्रव्य के हरण का विचार होता है वह स्तेयानुबन्धी रौद्रध्यान कहलाता है। इन्द्रियविषयों के साधनभूत धन के संरक्षण का जो निरन्तर विचार रहता है उसका नाम विषयसंरक्षणानुबन्धी (चौथा) रौद्रध्यान है। यह चार प्रकार का निकृष्ट रौद्रध्यान मिथ्यावृष्टि प्रादि संयतासंयत पर्यन्त पांच गुणस्थानों में ही सम्भव है, प्रमत्तसंयतादि शेष गुणस्थानों में वह सम्भव नहीं है । वह नरकगति का कारण है ॥११॥ अब क्रमप्राप्त घHध्यान के स्वरूप को दिखलाते हुए धर्म का स्वरूप प्रगट करते हैंजिनाज्ञा-कलुषापाय-कर्मपाकविचारणा । लोकसंस्थानविचारश्च धर्मो देव त्वयोदितः॥१२॥ अनपेतं ततो धर्माद्यत्तद् धयं चतुर्विधम् । उत्तमो वा तितिक्षादिर्वस्तुरूपस्तथापरः ॥१३॥ जिनदेव की प्राज्ञा (जिनागम), पाप के अपाय, कर्म के विपाक और लोक के आकार का जो विचार किया जाता है उसे हे देव ! आपने धर्म कहा है। उस धर्म से जो दूर नहीं है-उससे परिपूर्ण है-वह षHध्यान कहलाता है, जो विषय के भेद से चार प्रकार का है। अथवा उत्तम क्षमा-मार्दवादिस्वरूप धर्म का लक्षण जानना चाहिए, वस्तु का जो स्वरूप या स्वभाव है उसे भी प्रकारान्तर से धर्म कहा जाता है। विवेचन-जो विचार धर्म से सम्पन्न होता है उसे यहां घHध्यान कहा गया है। प्रसंगवश यहां धर्म के स्वरूप का विचार करते हुए प्रथमतः जिनाज्ञा मादि के विचार को धर्म बतलाया है। वह उक्त जिनाज्ञा प्रादि के भेद से चार प्रकार का है। इनमें जिनाज्ञा (जिनागम) का विचार करते हुए धर्मध्यानी यह विचार करता है कि तत्त्व की दुरवबोधता और ज्ञानावरण के उदय के कारण यदि किसी तत्त्व का बोष मुझे ठीक से नहीं होता है तो इससे जिज्ञासित तत्व का स्वरूप अन्यथा नहीं हो सकता, क्योंकि वह उस प्राप्त के द्वारा कहा गया है जो सर्वज्ञ-समस्त तत्त्वों का ज्ञाता-और राग-देख से रहित है। तत्त्व का असत्य निरूपण वही करता है जो या तो अल्पज्ञ है या राग-द्वेष के वशीभत है। इस प्रकार से जिनागम के विषय में विचार करना यह उस धर्म का प्रथम भेद है। कलुष नाम पाप का है. जीव के साथ जो अनादि काल से भवभ्रमण के कारणभूत कर्म-मल का सम्बन्ध हो रहा है उसका विनाश किस प्रकार से हो, इसके विषय में जो विचार किया जाता है उसका नाम कलुषापाय है। यह उस धर्म का दूसरा भेद है। इसमें प्रकारान्तर से यह भी विचार किया जाता है कि मिथ्यात्व के वशी. भूत होकर राग-द्वेष से अभिभूत हुए प्राणी जो अपाय को प्राप्त हो रहे हैं-जन्म-मरण रूप संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं उनका उससे किस प्रकार उद्धार होगा। कर्म ज्ञानावरणादि के भेद से पाठ

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