Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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ध्यानशतकम्
अंबर- लोह-महीणं कमसो जह मल-कलंक-पंकाणं । सोझावणयण-सोसे साहेंति जलाऽणलाऽऽइच्चा ॥६७॥ तह सोज्झाइसमत्था जीवंबर- लोह-मेइणिगयाणं ।
[ ६७
भाण- जलाऽणल-सूरा कम्म- मल-कलंक - पंकाणं ॥ ६८ ॥
'अम्बर- लोह - महीनाम्' वस्त्र- लोहाऽऽर्द्र क्षितीनाम् 'क्रमश:' क्रमेण यथा मल- कलङ्क पङ्कानां यथासङ्ख शोध्या - [ ध्य-]पनयन-शोषान् यथासङ्खयमेव 'साधयन्ति' निर्वर्तयन्ति जलाऽनलाऽऽदित्या इति गाथार्थः ||६७।। तथा शोध्यादिसमर्था जीवाम्बर - लोह - मेदिनीगतानां 'ध्यानमेव जलानल - सूर्याः' कर्मैव मलकलङ्क - पङ्कास्तेषामिति गाथार्थः ॥ ६८ ॥ किं च
तापो सोसो भेश्रो जोगाणं झाणश्रो जहा निययं ।
तह ताव सोस भेया कम्मस्स वि भाइणो नियमा ॥ ६६ ॥
तापः शोषो भेदो योगानां 'ध्यानतः' ध्यानात् यथा 'नियतम्' अवश्यम्, तत्र तापः दुःखम्, तत एव शोषः दौर्बल्यम्, तत एव भेदः विदारणम्, योगानां वागादीनम्, 'तथा' तेनैव प्रकारेण ताप-शोष-भेदाः कर्मऽपि भवन्ति, कस्य ? 'ध्यायिनः' न यदृच्छया नियमेनेति गाथार्थः ६६ ॥ किंचजह रोगासयसमणं विसोसण- विरेयणोसह विहीहि । कम्मामयसमणं भाणास जोगेहिं ॥ १०० ॥
तह
यथा 'रोगाशयशमनम्' रोगनिदानचिकित्सा, 'विसोषण विरेचनौषधविधिभिः' श्रभोजन- विरेकी(चौ-) षधप्रकारैः, तथा 'कर्मामयशमनम्' कर्म- रोगचिकित्सा घ्यानानशनादिभिर्योगः, प्रदिशब्दाद् ध्यानवृचिकारकशेषतपोभेदग्रहणमिति गाथार्थः ॥ १०० ॥ किं च
जह चिरसंचियमघणमनलो पवणसहिश्रो दुयं दहइ ।
तह कम्मँधणममियं खणेण झाणाणलो डहइ ॥ १०१ ॥
यथा 'चिरसञ्चितम् ' प्रभूतकाल सञ्चितम् 'इन्धनम्' काष्ठादि 'अनल' अग्निः 'पवनसहित:' वायुसमन्वितः 'द्रुतम् ' शीघ्रं च 'दहति' भस्मीकरोति, तथा दुःख-तापहेतुत्वात् कर्मैवेन्धनम् कर्मेन्धनम् 'श्रमितम् ' अनेकभवोपात्तमनन्तम्, 'क्षणेन' समयेन ध्यानमनल इव ध्यानानलः असो 'दहति' भस्मीकरोतीति गाथार्थः ॥ १०१ ॥
इसको प्रागे अनेक दृष्टान्तों के द्वारा स्पष्ट किया जाता हैजिस प्रकार जल वस्त्रगत मैल
को धोकर उसे स्वच्छ कर देता है उसी प्रकार ध्यान शुद्ध कर देने वाला है, जिस प्रकार अग्नि लोहे के कलंक ध्यान जीव से सम्बद्ध कर्मरूप कलंक को पृथक् कर देने पृथिवी के कीचड़ को सुखा देता है उसी प्रकार ध्यान जीव से संलग्न
धोकर उसे उसी प्रकार
है
जीव से संलग्न कर्मरूप मैल को (जंग आदि) को दूर कर देती वाला है, तथा जिस प्रकार सूर्य कर्मरूप कीचड़ को सुखा देने वाला है ।।६७-६८ || इसके अतिरिक्त —
ध्यान से जिस प्रकार वचनादि योगों का नियम से ताप (दुख ), शोषण (दुर्बलता) और भेद ( विदारण) होता है उसी प्रकार उस ध्यानसे ध्याता के कर्म का भी नियम से ताप, शोषण और भेद हुआ करता है ||६|| और भी -
जिस प्रकार रोग को सुखा देने वाली (लंघन ) अथवा रेचक — रोग के कारणभूत मल को बाहिर निकाल देने वाली - श्रौषधियों के प्रयोग से उस रोग को शान्त कर दिया जाता है उसी प्रकार ध्यान श्रौर उपवास श्रादि के विधान से कर्मरूप रोग को शान्त कर दिया जाता है ॥ १०० ॥ धौर भी
जिस प्रकार वायु से सहित श्रग्नि दीर्घ काल से संचित ईंधन को शीघ्र जला देती है उसी प्रकार ध्यानरूप प्रति श्रपरिमित — अनेक पूर्व भवों में संचित - कर्मरूप ईंधन को क्षण भर में भस्म कर देती है ।। १०१ ।। अथवा -