Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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ध्यानस्तवः
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कर्माभावे ह्यनन्तानां ज्ञानादीनामवापनम् । उपलम्भोऽथवा सोक्ता त्वया स्वप्रतिभासनम् ॥
अथवा-कर्मों के विनष्ट हो जाने पर जो अनन्त ज्ञानादि की प्राप्ति होती है, यही स्वात्मा की उपलब्धि है जो प्रात्मप्रतिभासस्वरूप है। इसे ही हे भगवन् ! प्रापने सिद्धि कहा है।
विवेचन-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, प्रायु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये पाठ कर्म हैं। इनमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार घातिया कर्म हैं जो क्रम से ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व और वीर्य इनके विघातक हैं। उनका अभाव हो जाने पर जीव सयोगकेवली नामक तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त कर अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य स्वरूप अनन्तचतुष्टय को प्राप्त कर लेता है। यही प्रार्हन्त्य अवस्था अथवा जीवन्मुक्ति है। तत्पश्चात् प्रयोमकेवली नामक चौदहवें गुणस्थान में वेदनीय, प्राय, नाम और गोत्र इन चार अघातिया कर्मों के भी नष्ट हो जाने पर जीव सिद्ध होकर निर्वाध शाश्वतिक सुख को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार सिद्धि को प्राप्त हुमा मुक्तात्मा उक्त पाठ कर्मों के प्रभाव में क्रम से केवलज्ञान, केवलदर्शन, अव्याबावत्व, क्षायिक सम्यक्त्व, अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व, प्रगुरुलघुत्व और अनन्त वीर्य इन माठ गुणों का स्वामी हो जाता है। कहा भी गया है
मोहो खाइयसम्म केवलणाणं च केवलालोयं । हणदिह प्रावरणदुर्ग प्रणंतविरियं हदि विग्धं । सहमंबणामकम्म हणेदि प्राऊ हणेदि अवगहणं । अगुरुलहुगं च गोदं अव्वाबाहं हणे वेयणियं ॥
(गो. जी. जी. प्र. टीका ६८ उद्धृत) अर्थात् मोहनीय कर्म क्षायिक सम्यक्त्व का, दो प्रावरण-ज्ञानावरण और वर्शनावरण-क्रम से केवलज्ञान और केवलदर्शन का, विघ्न (अन्तराय कर्म) अनन्त वीर्य का, नामकर्म सूक्ष्मत्व का, मायुकर्म अवगाहनत्व का, गोत्रकर्म अगुरुलघुत्व का और वेदनीय प्रव्याबाधत्व का घात करता है ॥४॥
मागे यह दिखलाते हैं कि ज्ञानस्वरूप प्रात्मा का अनुभव होने पर ही ध्यान सम्भव है, उसके विना वह सम्भव नहीं हैसमाधिस्थस्य यद्यात्मा ज्ञानात्मा नावभासते। न तद् ध्यानं त्वया देव गीतं मोहस्वभावकम् ॥
हे देव ! जो समाधि में स्थित है उसे यदि प्रात्मा ज्ञानस्वरूप प्रतिभासित नहीं होता है तो मापने उसके उस ध्यान को मोहस्वरूप होने के कारण ध्यान नहीं कहा ॥
विवेचन-यद्यपि सामान्य से चार प्रकार के ध्यान के अन्तर्गत प्रात व रौद्र भी हैं, परन्तु यहां ध्यान से समीचीन ध्यान की विवक्षा रही है, लोकरूढि में भी ध्यान से समीचीन ध्यान का ही प्रहण किया जाता है। वह समीचीन ध्यान मिथ्यावृष्टि के सम्भव नहीं है, किन्तु सम्यग्दृष्टि के ही होता है। इसीलिए यहां यह कहा गया है कि जिसे शरीरादि से भिन्न ज्ञानस्वरूप प्रात्मा का प्रतिभास नहीं होता उसके समाधिस्थ जैसे होने पर भी वस्तुतः ध्यान सम्भव नहीं है। कारण यह कि मिथ्यात्व से ग्रसित होने के कारण उसे स्व-पर का विवेक ही नहीं हो सकता ॥५॥
आगे ध्यान का स्वरूप कहा जाता हैनानालम्बनचिन्ताया यदेकार्थे नियन्त्रणम् । उक्तं देव त्वया ध्यानं न जाड्यं तुच्छतापि वा ॥
अनेक पदार्थों का पालम्बन लेने वाली चिन्ता को जो एक ही पदार्थ में नियंत्रित किया जाता है, इसे हे देव ! आपने ध्यान कहा है। वह ध्यान न तो जड़ता स्वरूप है और न तुच्छता रूप भी है।
विवेचन-"उत्तमसंहननस्यकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्" इस सूत्र' में कहा गया है कि अनेक पदार्थों की मोर से चिन्ता को हटाकर उसे एक पदार्थ पर रोकना, यह ध्यान कहलाता है और वह उत्तम संहनन वाले के अन्तर्मुहर्त काल तक होता है। १. त. सू. ६-२७.