Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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शुक्लध्याने वचन-कायनिरोधः
४१
तदसङ्कगुणविहीणे समए समए निरुभमाणो सो। मणसो सव्वनिरोहं कुणइ असंखेज्जसमएहिं ॥२॥ पज्जत्तमित्तबिदियजहण्णवइजोगपज्जया जे उ। तदसंखगुणविहीणे समए समए निरु'भंतो ॥३॥ सव्ववइजोगरोहं संखाईएहिं कुणइ समएहिं । तत्तो य सुहुमपणगस्स पढमसमग्रोववन्नस्स ॥४॥ जो किर जहण्णजोमो तदसंखेज्जगुणहीणमेक्केक्के । समए निरुभमाणो देहतिभागं च मुंचंतो ॥५॥ रुभइ स कायजोगं संखाईएहिं चेव समएहिं। तो कयजोगनिरोहो सेलेसीभावणामेइ ॥६॥ सेलेसो किर मेरू सेलेसी होइ जा तहाञ्चलया। होउं च असेलेसो सेलेसी होइ थिरयाए ॥७॥ अहवा सेलुव्व इसी सेलेसी होइ सो उ थिरयाए । सेव प्रलेसीहोई सेलेसीहो अलोवाओ ॥८॥ सीलं व समाहाणं निच्छयो सव्वसंवरो सो य । तस्सेसो सीलेसो सीलेसी होइ तयवत्थो ॥॥ हस्सक्खराइ मज्झण जेण कालेण पंच भण्णंति। अच्छइ सेलेसिगयो सत्तियमेत्तं तो कालं ॥१०॥ तणुरोहारंभाप्रो झायइ सुहमकिरियाणियदि सो। वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाई सेलेसिकालंमि ॥११॥ तयसंखेज्जगुणाए गुणसेढीएँ रइयं पुरा कंमं । समए समए खवयं कमसो सेलेसिका तेणं ॥१२॥ सव्वं खवेइ तं पुण निल्लेवं किंचि दुचरिमे समए। किंचिच्च होंति चरमे सेलेसीए तयं पर्याप्त मात्र दो इन्द्रिय जीव के जघन्य वचनयोग की जितनी अवस्थायें हैं उनके प्रसंख्यातगुणे हीन वचनयोग की अवस्थाओं का वे प्रत्येक समय में निरोध करते हुए असंख्यात समय में समस्त वचनयोग का निरोध कर देते हैं। इस प्रकार वचनयोग का भी निरोध हो जाने पर वे सूक्ष्म पर्याप्तक जीव का उत्पन्न होने के प्रथम समय में जितना जघन्य योग होता है उससे असंख्यातगुणे हीन का प्रत्येक समय में निरोध करते हैं और शरीर के तृतीय भाग को छोड़ते हुए असंख्यात समयों में काययोग का भी निरोध कर देते हैं। इस प्रकार काययोग का निरोध कर चुकने पर वे शैलेशी भावना को प्राप्त होते हैं। शैलेश नाम मेरु पर्वत का है, उस मेरु के समान जो स्थिरता प्राप्त होती है उसे शैलेशी कहा जाता है। पूर्व में शैलेश न होकर पश्चात् स्थिरता के प्राश्रय से शैलेश हो जाना, यह शैली का अभिप्राय है। सेलेसी' यह शब्द प्राकृत का है। इसका संस्कृत रूपान्तर जैसे 'शलेशी' होता है वैसे ही 'शैलषि' भी होता है, उसका अर्थ होता है शैल के समान स्थिर ऋषि, ऐसे ऋषि केवली ही होते हैं। अथवा 'स एव प्रलेसी सेलेसी' इस निरुक्ति के अनुसार उसका अभिप्राय लेश्या से रहित केवली ही होता है। अथवा प्रकारान्तर से सर्वसंवररूप शील का जो ईश (स्वामी) है उसे शीलेश कहा जाता है। वे केवली जिन ही होते हैं, जो पूर्व में शीलेश नहीं थे वे उस केवली अवस्था में शीलेश हो जाते हैं, अतः उन्हें प्रशीलेश से शैलेशी कहा जाता है। इस प्रकार योगनिरोध करके शैलेशी अवस्था को प्राप्त हुए केवली, जिस मध्यम काल से अ, इ, उ, ऋ और लु इन पांच ह्रस्व अक्षरों का उच्चारण होता है उतने काल उस शैलेशी अवस्था में स्थित रहते हैं। यही प्रयोगकेवली का काल है। केवली कायनिरोष के प्रारम्भ से सूक्ष्मक्रियानिति शक्लध्यान का चिन्तन करते हैं और तत्पपश्चात् उक्त शैलेशी अवस्था में वे सूक्ष्मक्रिय अप्रतिपाति शुक्लध्यान का चिन्तन करते हैं। इस शैलेशीकाल में केवली असंख्यातगुणित गुणश्रेणी रूप से रचे गये पूर्वसंचित कर्म का प्रत्येक समय में क्षय करते हुए सब का क्षय कर देते हैं। उनमें कुछ कर्म का निर्लेप क्षय वे शैलेशीकाल के द्विचरम समय में और कुछ का उसके अन्तिम समय में क्षय करते हैं । उनमें से चरम समय में जिन कर्मप्रकृतियों का क्षय किया जाता है वे ये हैं -मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, प्रस, बादर, १. तदो अंतोमहत्तं सेलेसि पडिबज्जदि । ततोऽन्तर्मुहर्तमयोगिकेवलौ भूत्वा शैलेश्यमेष भगवानलेश्य
भावेन प्रतिपद्यते इति सूत्रार्थः । किं पुनरिदं शैलेश्यं नाम ? शीलानामीशः शैलेशः, तश्य भावः शैलेश्यं सकलगुण-शीलानामैकाधिपत्यप्रतिलम्भनमित्यर्थः । जयघ. अ. प. १२४६ (धव. पु १०, पृ.
३२६ का टि. १) २. शीलेशः सर्वसंवररूपचरणप्रभुस्तस्येयमवस्था। शैलेशो वा मेरुस्तस्येव याऽवस्था स्थिरतासाधात् सा
शैलेशी । सा च सर्वथा योगनिरोधे पंचह्रस्वाक्षरोच्चारकालमाना। व्याख्याप्रज्ञप्ति अभय. वृ. १,८, ७२ (धव. पु. ६, पृ. ४१७ का टि. १)