Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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ध्यानशतकम् ।
तोयमिव नालियाए तत्तायसभायणोदरत्यं वा।
परिहाइ कमेण जहा तह जोगिमणोजलं जाण ॥७॥ 'तोयमिव' उदकमिव 'नालिकायाः' घटिकायाः, तथा तप्तं च तदायसभाजनं लोहभाजनं च तप्तायसभाजनम्, तदुदरस्थम्, वा विकल्पार्थः, परिहीयते क्रमेण यथा, एष दृष्टान्तः, अयमर्थोपनय:-'तथा' तेनैव प्रकारेण योगिमन एवाविकलत्वाज्जलं योगिमनोजलं 'जानीहि अवबुद्धचस्व, तथाप्रमादानलतप्तजीव-भाजनस्यं मनोजलं परिहीयत इति भावना, अलमतिविस्तरेणेति गाथार्थः ।।७।। 'अपनयति ततोऽपि जिनवैद्य इति वचनाद् एवं तावत् केवली मनोयोगं निरुणद्धीत्यूक्तम, अधूना शेषयोगनियोगविधिमभिधातुकाम
माह
एवं चिय वयजोगं निरंभइ कमेण कायजोगंपि।
तो सेलेसोव्व थिरो सेलेसी केवली होइ ॥७६॥ 'एवमेव' एभिरेव विषादिदृष्टान्तः, किम् ? वाग्योगं निरुणद्धि, तथा क्रमेण काययोगमपि निरुणदीति वर्तते, ततः 'शैलेश इव' मेरुरिव स्थिरः सन् शैलेशी केवली भवतीति गाथार्थः ॥७६।। इह च भावार्थों नमस्कारनियुक्ती प्रतिपादित एव, तथाऽपि स्थानान्याथं स एव लेशतः प्रतिपाद्यते तत्र योगानामिदं स्वरूपम्-प्रौदारिकादिशरीरयुक्तस्याऽऽत्मनो वीर्यपरिणतिविशेषः काययोगः, तथौदारिक-वैक्रियाहारकशरीरव्यापाराहृतवाग्द्रव्यसमूहसाचिव्याज्जीवव्यापारो वाग्योगः, तथौदारिक-वैक्रियाहारकशरीरव्यापाराहृतमनोद्रव्यसाचिव्याज्जीवव्यापारो मनोयोग इति । स चामीषां निरोधं कुर्वन कालतोऽन्तर्महर्तभाविनि परमपदे भवोपग्राहिकर्मसु च वेदनीयादिषु समुद्घाततो निसर्गेण वा समस्थितिषु सत्स्वेतस्मिन् काले करोति, परिमाणतोऽपि-पज्जत्तमित्तसनिस्स जत्तियाइं जहण्णजोगिस्स । होति मणोदव्वाइं तव्वावारो य जम्मत्तो॥१॥
उसे पुष्ट करने के लिए और भी उदाहरण दिया जा रहा है
जिस प्रकार नालिका (भुत घट) का जल अथवा तपे हुए लोहपात्र के मध्य में स्थित जल क्रम से क्षीण होता जाता है उसी प्रकार योगी के मनरूप जल को जानना चाहिए। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार मिट्टी के पात्र में स्थित जल क्रम से उत्तरोत्तर चता रहता है, अथवा अग्नि से सन्तप्त लोहे के पात्र में स्थित जल क्रम से जलकर क्षीण होता जाता है उसी प्रकार अग्नि के समान सन्तप्त करने वाले प्रमाद के उत्तरोत्तर हीन होते जाने से योगी का मन उत्तरोत्तर इन्द्रिय विषय की पोर से विमुख होता हुमा केवली अवस्था में सर्वथा क्षय को प्राप्त हो जाता है ॥७॥
अब शेष वचनयोग और काययोग के निरोधक्रम को भी दिखलाया जाता है- इसी प्रकार से-मनयोग के समान-वह (केवली) क्रम से वचनयोग और काययोग का भी निरोष करता है। तत्पश्चात् वह शैलेश-पर्वतों के अधिपति मेरु-के समान स्थिर होकर शैलेशी केवली हो जाता है।
विवेचन केवली जिन मनयोग आदि का निरोध करते हैं उनका स्वरूप इस प्रकार हैप्रौदारिक मादि शरीरों से युक्त प्रात्मा के वीर्य का जो विशेष परिणमन होता है उसका नाम काययोग है। औदारिक, वैक्रियिक और माहारक शरीर के व्यापार से जिस वचनद्रव्य के समूह (वचनवर्गणा) का मागमन होता है उसकी सहायता से होने वाले जीव के व्यापार को वचनयोग कहा जाता है। इन्हीं तीनों शरीरों के व्यापार से ग्रहण किये गये मनद्रव्य (मनोवर्गणा) की सहायता से जो जीव का व्यापार होता है वह मनयोग कहलाता है। मोक्षपद की प्राप्ति में जब अन्तर्मुहूर्त मात्र काल शेष रह जाता है तब संसार के कारणभूत वेदनीय प्रादि प्रघातिया कर्मों की स्थिति के समुद्घात के द्वारा अथवा स्वभाव से ही समान हो जाने पर केवली उक्त योगों का निरोष किया करते हैं। जघन्य योग वाले पर्याप्त मात्र संज्ञी जीवके जितने मनद्रव्य होते हैं और जितना उनका व्यापार होता है उनके असंख्यातगुणे होन का प्रत्येक समय में निरोध करते हुए केवली असंख्यात समयों में समस्त मनयोग का निरोध कर देते हैं। तत्पश्चात्