Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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केवलिनश्चित्ताभावेऽपि शुक्लध्यानसम्भावना
'अप्रतिपाति अनुपरतस्वभावमिति, एतदेव चास्य नाम, ध्यानं परमशुक्लम्-प्रकटार्थमिति गाथार्थः ।।२।। इत्थं चतुर्विधं ध्यानमभिधायाधुनैतत्प्रतिबद्धमेव वक्तव्यताशेषमभिधित्सुराह
पढमं जोगे जोगेसु वा मयं बितियमेयजोगंमि ।
तइयं च कायजोगे सुक्कमजोगंमि य चउत्थं ॥३॥ "प्रथमम्' पृथक्त्ववितर्कसविचारम् 'योगे' मनादौ योगेषु वा सर्वेषु 'मतम्' इष्टम्, तच्चागमिकश्रुतपाठिनः, 'द्वितीयम्' एकत्ववितर्कमविचारं तदेकयोग एव, अन्यतरस्मिन् संक्रमाभावात्, तृतीयं च सूक्ष्मक्रियाऽनिवति काययोगे, न योगान्तरे, शुक्लम् 'अयोगिनि च' शैलेशीकेवलिनि 'चतुर्थम्' व्युपरतक्रियाप्रतिपातीति गाथार्थः ॥८३॥ प्राह शुक्लध्यानोपरिमभेदद्वये मनो नास्त्येव, अमनस्कत्वात् केवलिनः, ध्यानं च मनोविशेषः 'ध्ये चिन्तायाम्' इति पाठात, तदेतत्कथम् ? उच्यते
जह छउमत्थस्स मणो झाणं भण्णइ सुनिच्चलो संतो।
तह केवलिणो कामो सुनिच्चलो भन्नए झाणं ॥४॥ यथा छद्मस्थस्य मनः, किम् ? ध्यानं भण्यते सुनिश्चलं सत, 'तथा' तेनैव प्रकारेण योगत्वाव्यभिचारात्केवलिनः कायः सुनिश्चलो भण्यते ध्यानमिति गाथार्थः ॥८४॥ पाह-चतुर्थे निरुद्धत्वादसावपि न भवति, तथाविधभावेऽपि च सर्वभावप्रसङ्गः, तत्र का वार्तेति ? उच्यते
पुव्वप्पयोगयो चिय कम्मविणिज्जरणहेउतो यावि। सहत्थबहुत्ताओ तह जिणचंदागमानो य ॥५॥
के विना उससे निवर्तन (लौटना) सम्भव नहीं है, इसीलिए उसे अनिवति भी कहा जाता है; अथवा उससे प्रतिपतन (गिरना) सम्भव न होने के कारण उसे दूसरे समानार्थक शब्द से अप्रतिपाति भी कहा जाता है। जिस प्रकार तीसरा सूक्ष्मक्रिय-अनिवति ध्यान केवलज्ञानस्वरूप है उसी प्रकार यह भी केवलज्ञानस्वरूप है। विशेषता इतनी है कि जहां तीसरा सूक्ष्मकाययोग के परिणाम स्वरूप था वहां यह चौथा शुक्लध्यान योगरहित प्रात्मपरिणामस्वरूप है ॥२॥
प्रागे उक्त चार शक्लध्यान योग की अपेक्षा किस अवस्था में होते हैं, यह दिखलाते हैं
उक्त चार शुक्लध्यानों में प्रथम पृथक्त्ववितर्क सविचार ध्यान योग अथवा योगों में होता हैवह मन प्रादि तीनों योगों में परिवर्तिरूप से होता है, द्वितीय एकत्ववितर्क अविचार ध्यान तीनों योगों में से किसी एक ही योग में अपरिवर्तितरूप से होता है। तीसरा सूक्ष्मक्रिय प्रनिति ध्यान एक काययोग में ही होता है, तथा चौथा व्युपरतक्रिय-प्रप्रतिपाति ध्यान योग का सर्वथा श्रभाव हो जाने पर प्रयोग अवस्था में ही होता है ॥३॥
यहां यह आशंका हो सकती थी कि केवली के जब मन का ही सद्भाव नहीं रहा तब उनके के दो ध्यान-सूक्ष्मक्रिय-अनिवति और व्यपरतक्रिय-अप्रतिपाति-कैसे सम्भव हैं, क्योंकि मनविशेष का नाम ही तो ध्यान है ? इसके समाधानस्वरूप मागे यह कहा जा रहा है
जिस प्रकार छद्मस्थ के अतिशय निश्चलता को प्राप्त हुए मन को ध्यान कहा जाता है, उसी प्रकार केवली के अतिशय निश्चलता को प्राप्त हुन शरीर को ध्यान कहा जाता है, क्योंकि योग की अपेक्षा वे दोनों ही समान हैं ॥४॥
यहां पुनः यह शंका उपस्थित होती है कि प्रयोगकेवली के तो काययोग का भी निरोध हो चुका है, फिर उनके व्यपरतक्रिय-प्रप्रतिपाति नामक चौथे ध्यान के समय वह (काययोग) भी कैसे रह सकता है ? इसके समाधानस्वरूप आगे कहा जाता है
संसार में स्थित केवली के चित्त का प्रभाव हो जाने पर भी पूर्व प्रयोग की अपेक्षा, कर्मनिर्जरा का कारण होने से, शब्दार्थ की बहुतता से और जिनप्रणीत पागम के प्राधय से सूक्ष्मक्रिय-अनिवर्ति