Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 129
________________ २१ -५२] ध्येयान्तर्गतकर्मविपाकनिरूपणम् नुभावजनितं' मनोयोगादिगुणप्रभवं कर्मविपाकं विचिन्तयेदिति गाथार्थः ॥५१॥ भावार्थः पुनवंदविवरणादवसेयः । तन्दम्-इह पयइभिन्न सुहासुहविहत्तं कम्मविवागं विचितेज्जा, तत्य पयईउत्ति कम्मणो भेया अंसा णाणावरणिज्जाइणो अदु, तेहिं भिन्न बिहत्तं सुहं पुण्णं सायाइयं असुहं पावं तेहिं विहत्तं विभिन्नविपाक जहा कम्मपयडीए तहा विसेसेण चिंतिज्जा । किं च-ठिइविभिन्न च- मुहासुहविहत्तं कम्मविवागं विचितेज्जा-ठिइत्ति तासिं चेव अटुण्हं पयडीणं जहण्ण-मज्झिमुक्कोसा कालावत्था जहा क्रम्मपडीए। किंचपएसभिन्नं शुभाशुभं याबत्-'कृत्वा पूर्व विधानं पदयोस्तावेव पूर्ववद् वग्यौं । वर्ग-धनो कुर्यातां तृतीयराशेस्ततः प्राग्वत् ॥१॥'कृत्वा विधानम्' इति २५६, मस्य राशेः पूर्वपदस्य घनादि कृत्वा तस्यैव वर्गादि ततः द्वितीयपदस्येदमेव विपरीतं क्रियते, तत एतावेव वयेते, ततस्तृतीयपदस्य धर्ग-घनो क्रियते, एवमनेन क्रमेणायं राशिः १६७७७२१६ चितेज्जा, पएसोत्ति जीव-पएसाणं कम्मपएसेहिं सुहुमेहिं एगखेत्तावगाढेहिं पुरोगाढणंतरमणु-बायर-उद्धाइभेएहिं बद्धाणं वित्थरो कम्मपयडीए भणियाणं कम्मविवागं विचितेज्जा। कि च-अणुभावभिन्न सुहासुहविहत्तं कम्मविवागं विचितेज्जा, तत्थ अणुभावोत्ति तासिं चेवट्रण्डं पयडीणं पुट-बद्ध-निकाइयाणं उदयाउ अणुभवणं, तं च कम्मविवागं जोगाणुभावजणियं विचितेज्जा, तत्थ जोगा मण-वयण-काया, अणुभावो जीवगुण एव, स च मिथ्यादर्शनाविरति-प्रमाद-कषायाः, तेहिं अणुभावेण य जणियमुप्पाइयं जीवस्स कम्मं जं तस्स विवागं उदयं विचिंतिज्जइ। उक्तस्तृतीयो ध्यातव्यभेदः, साम्प्रतं चतर्थ उच्यते, तत्र जिणदेसियाइ लक्खण-संठाणा ऽऽसण-विहाण-माणाई। उप्पायट्रिइभंगाइपज्जवा जे य दव्वाणं ॥५२॥ जिनाः-प्राग्निरूपितशब्दार्थास्तीर्थकराः, तैर्देशितानि-कथितानि जिनदेशितानि, कान्यत अाहलक्षण-संस्थानाऽऽसन-विधान-मानानि । किम् ? विचिन्तयेदिति पर्यन्ते वक्ष्यति षष्ठयां गाथायामिति । तत्र लक्षणादीनि विचिन्तयेत, अत्रापि गाथान्ते द्रव्याणामित्युक्तं तत्प्रतिपदमायोजनीयमिति । तत्र लक्षणं है। उससे प्रकृत में ज्ञानावरणादि रूप पाठ कर्मप्रकृतियों को ग्रहण किया गया है। वे कर्मप्रकृतियां जीव के साथ सम्बद्ध होकर जितने काल तक रहती हैं उसे स्थिति कहा जाता है। वह जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार की है। जीवप्रदेशों के साथ जो कर्मपुद्गलों का सम्बन्ध होता है वह प्रदेश कहलाता है। अनुभाव नाम विपाक या कर्मफल के अनुभवन का है। उक्त प्रकृति प्रादि अनेक भेद रूप होकर भी सामान्य से शुभ और अशुभ इन दो भेदों के अन्तर्गत हैं। उनमें सातावेदनीय आदि कर्म प्रकृतियां और असातावेदनीय आदि कर्मप्रकृतियाँ क्रम से इष्ट व अनिष्ट फल देने के कारण शम पौर प्रशभ मानी गई हैं। इन सबकी विशेष प्ररूपणा षट्खण्डागम, कषायप्राभूत और कर्मप्रकृति प्रादि कर्मग्रन्थों में विस्तार से की गई है ॥५१॥ प्रागे क्रमप्राप्त ध्यातव्य के चतुर्थ भेद का निरूपण छह गथानों द्वारा किया जाता है धर्मध्यानी को जिन भगवान के द्वारा उपदिष्ट द्रव्यों के लक्षण, प्राकार, प्रासन, विधान (भेद) और मान का तथा उत्पाद, स्थिति (ध्रौव्य) और भंग(व्यय) इन पर्यायों का भी विचार करना चाहिए। विवेचन-आगे गाथा ५७ में जो 'विचितेज्जा' क्रियापद प्रयुक्त है उसके साथ इन गाथानों का सम्बन्ध है। इससे गाथा का अर्थ यह है कि जिन देव ने धर्मास्तिकायादि द्रव्यों के उपर्यक्त लक्षण प्रादि का जिस प्रकार से निरूपण किया है, धर्मध्यानी को उसी प्रकार से उनका चिन्तन करना चाहिए। लक्षण जैसे-जिस प्रकार अविनष्ट नेत्रों से युक्त प्राणी के पदार्थज्ञान में दीपक या. सर्य का प्रकाश सहायक होता है उसी प्रकार जो जीवों और पुद्गलों के गमन में बिना किसी प्रकार की प्रेरणा के सहायक होता है वह धर्मास्तिकाय कहलाता है। इसी प्रकार जैसे बैठते हए प्राणी की स्थिति में पृथिवी कारण (उदासीन) होती है वैसे ही जो जीवों और पुद्गलों की स्थिति में अप्रेरक कारण होता है उसका नाम अधर्मास्तिकाय है। जिस प्रकार बेरों आदि को घट आदि स्थान देते हैं उसी प्रकार जो

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