Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 133
________________ ३३ -६०] ध्यातव्यद्वारे संसारोत्तरणोपायः 'स्वकर्मजनितम्' प्रात्मीयकर्मनिर्वतितम्, कम् ? संसार-सागरमिति वक्ष्यति तम्, किम्भूतमित्यत आह'जन्मादिजलम्' जन्म प्रतीतम्, प्रादिशब्दाज्जरा-मरणपरिग्रहः, एतान्येवातिबहुत्वाज्जलमिव जलं यस्मिन् स तथाविधस्तम्, तथा 'कषाय-पातालम्' कषायाः पूर्वोक्तास्त एवागाधभव-जननसाम्येन पातालमिव पातालं यस्मिन् स तथाविधस्तम्, तथा 'व्यसनशत-श्वापदवन्तम्' व्यसनानि दुःखानि द्यूतादीनि वा, तच्छतान्येव पीडाहेतुत्वात् श्वापदानि, तान्यस्य विद्यन्त इति तद्वन्तम् 'मणं' ति देशीशब्दो मत्वर्थीयः, उक्तं च-मतुयत्थंमि मुणिज्जह पालं इल्लं मणं च मणुयं चेति, तथा 'मोहावर्तम्' मोहः मोहनीयं कर्म, तदेव तत्र विशिष्टभ्रमिजनकत्वादावों यस्मिन् स तथाविधस्तम्, तथा 'महाभीमम्' अतिभयानकमिति गाथार्थः ॥५६।। किं च-'अज्ञानम्' ज्ञानावरणकर्मोदयजनित प्रात्मपरिणामः, स एव तत्प्रेरकत्वान्मारुतः वायुस्तेनेरितः प्रेरितः, कः ? संयोग-वियोग-वीचिसन्तानो यस्मिन् स तथाविधस्तम्, तत्र संयोगः केनचित् सह, सम्बन्धः, वियोगः तेनैव विप्रयोगः, एतावेव सन्ततप्रवत्तत्वात वीचयः ऊर्मयस्तत्प्रवाहः सन्तान इति भावना, संसरणं संसारः, [स] सागर इव संसार-सागरस्तम्, किम्भूतम् ? 'अनोरपारम्' अनाद्यपर्यवसितम्, 'अशुभम् पशोभनं विचिन्तयेत्, तस्य गुणरहितस्य जीवस्येति गाथार्थः ॥५७॥ तस्स य संतरणसहं सम्मइंसण-सुबंधणमणग्छ । णाणमयकण्णधारं चारित्तमयं महापोयं ॥५८॥ संवरकयनिच्छिदं तव-पवणाइद्धजइणतरवेगं । वेरग्गमग्गपडियं विसोत्तियावीइनिक्खोभं ॥५६॥ पारो, मुणि-वणिया महग्घसीलंग-रयणपडिपुन्न। जह तं निव्वाणपुरं सिग्घमविग्घेण पावंति ॥६०॥ संसार के अपरिमित होने से उसे यहाँ समुद्र कहा गया है-जिस प्रकार समुद्र अपरिमित जल से परिपूर्ण होता है उसी प्रकार जीव का वह संसार भी जल के समान अपरिमित जन्म-मरणादि से संयुक्त है, समुद्र में जहाँ विशाल पाताल रहते हैं वहाँ संसार में उन पातालों के समान क्रोषादि कषायें विद्यमान हैं, समुद्र में यदि श्वापद (हिंसक जलजन्तुविशेष) रहते हैं तो संसार में उन श्वापदों के समान पीड़ा उत्पन्न करनेवाले सैकड़ों व्यसन हैं सैकड़ों प्रापत्तियों अथवा लोकप्रसिद्ध जुम्रा प्रादि व्यसन हैं, समुद्र में जिस प्रकार भवर उठते हैं उसी प्रकार संसार में जन्म-मरण की परम्परा रूप भ्रमण को उत्पन्न करने वाला मोह है, समुद्र जैसे भय को उत्पन्न करता है वैसे ही संसार भी महान भय को उत्पन्न करने वाला है, तथा समुद्र में जहां वायु से प्रेरित होकर लहरों की परम्परा चलती है वहाँ संसार में उन लहरों की परम्परा के समान अज्ञान रूप वायु से प्रेरित होकर संयोग-वियोग की परम्परा चलती रहती है। इस प्रकार अपने ही कर्म के वश प्रादुर्भूत जो यह संसार सर्वथा समुद्र के समान है उसके चिन्तन की भी यहां प्रेरणा की गई है ॥५५-५७।। अब उक्त संसार-समुद्र के पार पहुंचाने में कौन समर्थ है, इसे प्रागे की तीन गाथाओं द्वारा स्पष्ट किया जाता है उस संसार-समुद्र से पार उतारने में वह चारित्ररूपी महती नौका समर्थ है जिसका उत्तम बन्धन सम्यग्दर्शन है, जो निष्पाप (अथवा अनर्घ–अमूल्य) है, जिसका कर्णधार (चालक) ज्ञान है, जो पानवों के निरोधस्वरूप संवर के द्वारा छेदरहित कर दी गई है, जिसका अतिशयित वेग तपरूप वायु से प्रेरित है, जो वैराग्य रूप मार्ग पर चल रही है, तथा जो दुर्ध्यानरूप लहरों के द्वारा क्षोभ को नहीं प्राप्त करायो जा सकती है। महा मूल्यवान् शीलांगरूप-पृथिवी कायसंरम्भावि के परित्यागरूर-रत्नों से परिपूर्ण उस चारित्ररूप विशाल नौका पर मारूढ़ होकर मुनिरूप व्यापारी उस निर्वाणपुर को-मुक्तिरूप पुरी को बिना किसी प्रकार की विघ्न-बाधामों के शीघ्र ही पा लेते हैं।

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