Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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ध्यानशतकम् .
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दिवसादिरवसेयः, अपिशब्दो देशानियमेन तुल्यत्वसम्भावनार्थः । तथा चाह- कालोऽपि स एव, ध्यानोचित इति गम्यते, 'यत्र' काले 'योगसमाधानं' मनोयोगादिस्वास्थ्यम् 'उत्तम प्रधानं 'लभते' प्राप्नोति, 'न तु' न पुनर्नव च तुशब्दस्य पुनःशब्दार्थत्वादेवकारार्थत्वाद्वा। किम् ? दिवस-निशा-वेलादिनियमनं ध्यायिनो भणितमिति । दिवस-निशे प्रतीते, वेला सामान्यत एव, तदेकदेशो मुहूर्तादिः, आदिशब्दात्पूर्वाह्णापराह्मादि वा, एतनियमनं दिववेत्यादिलक्षणम, ध्पायिनः सत्त्वस्य भणितम् उक्तं तीर्थकर-गणधरनैवेति गाथार्थः ॥३८॥ गतं कालद्वारम्, साम्प्रतमासनविशेषद्वारं व्याचिख्यासयाऽऽह
जच्चिय देहावत्था जिया ण झाणोवरोहिणी होइ।
झाइज्जा तदवत्थो ठिो निसण्णो निवण्णो वा ॥३॥ इहैव या काचिद् 'देहावस्था' शरीरावस्था निषण्णादिरूपा। किम् ? 'जिता' इत्यभ्यस्ता उचिता वा, तथाऽनुष्ठीयमाना 'न ध्यानोपरोधिनी भबति' नाधिकृतधर्मध्यानपीडाकरी भवतीत्यर्थः, ध्यायेत तदवस्थ इति-सैवावस्था यस्य स तदवस्थः, तामेव विशेषतः प्राह -'थितः' कायोत्सर्गेणेषन्नतादिना 'निषण्णः' उपविष्टो वीरासनादिना निविण्णः' सन्निविष्टो दण्डायतादिना 'वा' विभाषायामिति गाथार्थः ॥३६॥ माह -किं पुनरयं देश-कालासनानामनियम इति ? अत्रोच्यते
सव्वासु वट्टमाणा मुणो जं देस-काल-चेटासु । वरकेवलाइसाभं पत्ता बहुसो समियपावा ॥४०॥ तो देस-काल-चेट्टानियमो झाणस्स नस्थि समयंमि ।
जोगाण समाहाणं जह होइ तहा [प]यइयन्वं ॥४१॥ 'सर्वासु' इत्यशेषासु देश-काल-चेष्टासु इति योगः, चेष्टा देहावस्था, किम् ? 'वर्तमानाः' अवस्थिताः, के ? 'मुनयः' प्राग्निरूपितशब्दार्थाः 'यद्' यस्मात्कारणात्, किम् ? वरः प्रधानश्चासौ केवलादिलाभश्च वरकेवलादिलाभः, तं प्राप्ता इति, आदिशब्दान्मनःपर्याज्ञानादिपरिग्रहः, कि सकृदेव प्राप्ताः? न, केवलवर्ज 'बहुशः' अनेकशः, किंविशिष्टाः ? 'शान्तपापाः' तत्र पातयति नरकादिष्विति पापम्, शान्तम् उपशमं नीतं पापं यैस्ते तथाविधा इति गाथार्थः ॥४०॥ यस्मादिति पूर्वगाथायामुक्तं तेन सहास्याभिसम्बन्धः, तस्मादेश-काल-चेष्टानियमो ध्ययानस्य 'नास्ति' न विद्यते । क्व ? 'समये' आगमे, किन्तु 'योगानाम्' मनःप्रभूतीनां 'समाधानम्' पूर्वोक्तं यथा भवति तथा '[प्र]यतितव्यम्' [प्रयत्नः कार्य इत्यत्र नियम एवेति
का निर्देश नहीं किया गया है। तात्पर्य यह है कि परिपक्व ध्याता किसी भी काल में निर्बाध रूप से ध्यानस्थ हो सकता है ॥३८॥
अब प्रासनविशेष का व्याख्यान किया जाता है
पासनादि के रूप में अभ्यस्त जो भी देह की अवस्था ध्यान में बाधक नहीं होती है उसी अवस्था में स्थित ध्याता कायोत्सर्ग से, वीरासनादि से अथवा दण्डायत प्रादि स्वरूप से ध्यान में तल्लीन हो सकता है ॥३६॥
यहाँ शंका हो सकती है कि ध्यान के लिए उक्त प्रकार देश, काल एवं अवस्था का अनियम क्यों कहा गया-उनका कुछ विशेष नियम तो होना चाहिए था? इसके समाधानस्वरूप आगे यह कहा जाता है
उक्त शंका को लक्ष्य कर यहाँ यह कहा जा रहा है कि मुनि जनों ने देश, काल और चेष्टाशरीर की अवस्था; इन सभी अवस्थानों में अवस्थित रहकर चूंकि अनेक प्रकार से पाप को नष्ट करते हुए सर्वोत्तम केवलज्ञान प्रादि को प्राप्त किया है, इसीसे ध्यान के लिए प्रागम में देश, काल और चेष्टा का-प्रासनविशेषादि का कुछ नियम नहीं कहा गया है। किन्तु जिस प्रकार से भी योगों का-मन, वचन, काय का-समाधान (स्वस्थता) होता है उसी प्रकार प्रयत्न करना चाहिए ॥४०.४१॥