Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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प्रस्तावना
३३
कि अन्य सब
५. गीता में संयमी व असंयमी की विशेषता को प्रगट करते हुए कहा गया है प्राणियों (संयमियों) के लिए जो रात्रि है - प्रात्मावबोध से रहित प्रज्ञानजनित अवस्था है उसमें संयमी जागता है - वह उससे अलिप्त होकर प्रबुद्ध रहता है— श्रौर जिसमें अन्य प्राणी जागते हैं - व्यबहार में संलग्न रहते हैं - वह विवेकी मुनि के लिये रात्रि है- रात्रि के समान है, अर्थात् रात्रि में जिस प्रकार समस्त व्यवहार कार्य को छोड़कर अन्य प्राणी सो जाते हैं उसी प्रकार संयमी मुनि सोते हुए के समान उस सब लोकव्यवहार से अलिप्त रहता है' ।
लगभग इसी अभिप्राय को प्रगट करते हुए समाधिशतक में भी कहा गया है कि जो व्यवहार में सोता है -- विषयसुख से विमुख रहता है - वह आत्मा के विषय में जागता है - प्रबुद्ध रहता है, और जो व्यवहार में जागता है -- शरीर आदि की क्रियानों में उद्यत रहता है-- वह आत्मा के विषय में सोता है -- प्रात्मस्वरूप से विमुख रहता ।
६ गीता में श्रद्धा व ज्ञान पर बल देते हुए कहा गया है कि जो जितेन्द्रिय पुरुष श्रद्धा से 'युक्त होता है वह ज्ञान को प्राप्त करता है और फिर उस ज्ञान को पाकर वह शीघ्र ही उत्कृष्ट शान्ति को प्राप्त कर लेता है । इसके विपरीत जो ज्ञान और श्रद्धा से रहित होकर संशयालु होता है वह इस लोक श्रौर परलोक के भी सुख से वंचित रहता है' ।
समान है । जैन दर्शन में
जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को मुक्ति का कारण माना गया है। गीता का पूर्वोक्त निर्देश भी इसी अभिप्राय को प्रगट करता है। वहां जो सर्वप्रथम श्रद्धा का निर्देश किया गया है उसे जैन पारिभाषिक शब्द से सम्यग्दर्शन कहा जा सकता है । कारण यह कि जैन दर्शन में तत्त्वश्रद्धा को ही सम्यग्दर्शन कहा गया है । आगे ज्ञान का निर्देश दोनों में जिस प्रकार सम्यग्दर्शन के बाद ही ज्ञान (सम्यग्ज्ञान ) की प्राप्ति मानी गई है उसी प्रकार गीता में भी श्रद्धा के बाद ज्ञान की प्राप्ति का निर्देश किया गया है । गीतागत श्लोक ४-३६ में जो 'संयतेन्द्रियः' पद है वह सम्यकुचारित्र का द्योतक है, क्योंकि इन्द्रियों को नियन्त्रित करके विषयों से निवृत्त होने का नाम ही तो चारित्र है ।
७ गीता में कहा गया है कि आत्महितैषी जीव को स्वयं अपने ही द्वारा अपना उद्धार करना चाहिए और श्रात्मा को संकट में नहीं डालना चाहिए। कारण यह कि आत्मा ही आत्मा का बन्धु है
१. या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥ २-६६.
(यह श्लोक 'उक्तं च' श्रादि के निर्देश के विना ज्ञानार्णव में पृ. १६४ पर ज्यों का त्यों उपलब्ध होता है, वहां केवल 'सर्वभूतानां' के स्थान में सर्वभूतेषु' पाठ है )
२. (क) व्यवहारे सुषुप्तो यः स जागर्त्यात्मगोचरे ।
जागर्ति व्यवहारेऽस्मिन् सुषुप्तश्चात्मगोचरे ॥७८.
(ख) स्वजीविते कामसुखे च तृष्णया दिवा श्रमार्त्ता निशि शेरते प्रजाः ।
त्वमार्य ! नक्तं दिवमप्रमत्तवानजागरेबात्मविशुद्धवर्त्मनि ॥ स्व. स्तो. १० - ३.
३. श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ।। ४-३६.
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥ ४-४०. ४. सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः । त. सू. १-१. ५. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । त. सू. १ २.