Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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ध्यानशंतक
और फल का निर्देश किया गया है। हिंसानन्द के प्रसंग में वहां सिक्थ्य मत्स्य और अरविन्द नामक विद्याधर का उदाहरण दिया गया है। प्रादिपुराण में कुछ विशेष कथन
पश्चात् इस प्रसंग में यहां यह कहा गया है कि अनादि वासना के निमित्त से ये दोनों अप्रशस्त ध्यान बिना किसी प्रयत्नविशेष के होते हैं। मुनि जन इन दोनों दुानों को छोड़कर अन्तिम दो ध्यानों का अभ्यास करते हैं। उत्तम ध्यान की सिद्धि के लिये यहां ध्यानसामान्य की अपेक्षा उसके कुछ परिकर्म -देश, काल व प्रासन मादिरूप सामग्रीविशेष-को अभीष्ट बतलाया है।
परिकर्म का यह विवेचन यद्यपि सामान्य ध्यान को लक्ष्य में रखकर किया गया है, फिर भी इस प्रसंग में कुछ ऐसा भी कथन किया गया है जो यथास्थान ध्यानशतकगत धर्मध्यान के प्रकरण में उपलब्ध होता है और जिससे वह विशेष प्रभावित भी है। उदाहरणार्थ उक्त दोनों ग्रन्थों के इन पद्यों का मिलान किया जा सकता है
निच्चं चिय जुवइ-पसू-नपुंसग-कुसीलवज्जियं जइणो। ठाणं वियणं भणियं विसेसमो झाणकालंमि ॥ ध्या. श. ३५. स्त्री-पशु-क्लीब-संसक्तरहितं विजनं मुनेः। सर्वदेवोचितं स्थानं ध्यानकाले विशेषतः॥प्रा. पु. २१-७७.
जच्चिय वेहावत्था जिया ण झाणोवरोहिणी होइ। झाइज्जा तववत्थो ठिो निसण्णो निवण्णो वा ॥ ध्या. श.३९. देहावस्था पुनर्येव न स्याद् ध्यानोपरोधिनी। तदवस्थो मुनिायेत् स्थित्वाऽऽसित्वाऽधिशय्य वा ॥मा पु. २१-७५.
x सव्वासु वट्टमाणा मुणनो जं देस-काल-चेट्टासु । वरकेवलाइलाभं पत्ता बहुसो समियपावा ॥ ध्या. श. ४०. यद्देस-काल-चेष्टासु सर्वास्वेव समाहिताः ।
सिद्धाः सिद्धचन्ति सेत्स्यन्ति नात्र तन्नियमोऽस्त्यतः॥प्रा. पु. २१-५२. प्रादिपुराणगत उक्त तीनों श्लोकों में ध्यानशतक की गाथाओं का भाव तो पूर्णतया निहित है ही, साथ ही उनके प्राकृत शब्दों के संस्कृत रूपान्तर भी ज्यों के त्यों लिए गए हैं।
इस प्रकार परिकर्म की प्ररूपणा करके तत्पश्चात् वहां ध्याता, ध्येय, ध्यान और उसके फल के कहने की प्रतिज्ञा की गई है और तदनुसार आगे उनकी क्रमशः प्ररूपणा भी की गई है।
ध्येय की प्ररूपणा के बाद वहां क्रमप्राप्त ध्यान का कथन करते हुए यह कहा गया है कि एक वस्तुविषयक प्रशस्त प्रणिधान का नाम ध्यान है । वह धर्म्य और शुक्ल के भेद से दो प्रकार का है। यह प्रशस्त प्रणिधाम रूप ध्यान मुक्ति का कारण है।।
' यह कथन यद्यपि आदिपुराण में सामान्य ध्यान के प्राश्रय से किया गया है, फिर भी जैसा कि पाठक ऊपर देख चुके हैं; उसमें जो देश, काल एवं प्रासन आदि की प्ररूपणा की गई है वह ध्यानशतक के अन्तर्गत धर्मध्यान के प्रकरण से काफी प्रभावित है।
१. प्रा. पु. २१, ४२-५३. २. ध्यान के परिकर्म का विचार त. वा. (९-४४) और भ. आ. (१७०६-७) में भी किया गया है। ३. आ. पु. २१, ५४-८४. ४. ध्याता २१, ८५-१०३,ध्येय १०४-३१, ध्यान १३२, फल धर्मध्यान १६२-६३ और शुक्लध्यान १८६. ५.आ. पु. २१-१३२.