Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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प्रस्तावना
८१
२ द्रव्यसंग्रह में उपयोगस्वरूप जीव के लक्षण में समाविष्ट चेतना को स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि व्यवहार नय की अपेक्षा आठ प्रकार का ज्ञान और चार प्रकार का दर्शन यह जीव का सामान्य लक्षण है, किन्तु निश्चय की अपेक्षा इस भेदकल्पना से रहित शुद्ध ज्ञान व दर्शन ही जीव का लक्षण है।
ध्यानस्तव में भी उस चेतना के सम्बन्ध में यह कहा गया है कि वह चेतना ज्ञान और दर्शन से अनुगत है। आगे उस ज्ञान के सत्य व असत्य की अपेक्षा आठ (५+३) और दर्शन के चार भेदों का - लक्षणनिर्देशपूर्वक व्याख्यान किया गया है।
३ द्रव्यसंग्रह में यथाप्रसंग यह निर्देश किया गया है कि छद्मस्थों के जो ज्ञान होता है वह दर्शनपूर्वक होता है, परन्तु केवली भगवान् के वे दोनों (ज्ञान-दर्शन) साथ ही होते हैं।
उक्त ज्ञान-दर्शन की पूर्वापरता का उल्लेख ध्यानस्तव में भी उसी प्रकार से किया गया है।
४ द्रत्र्यसंग्रह में प्रास्रव का निरूपण करते हुए उसके दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-भावास्रव और द्रव्यास्रव । प्रात्मा के जिस परिणाम के द्वारा कर्म का आगमन होता है उसे भावास्रव कहते हैं, वह मिथ्यात्व आदि के भेद-प्रभेदों से बत्तीस (५+५+१५+३+४) प्रकार का है। ज्ञानावरणादि कर्मों के योग्य जो पुद्गल द्रव्य का आगमन होता है उसे द्रव्यास्रव कहा जाता है।
लगभग इसी प्रकार का अभिप्राय ध्यानस्तव में भी संक्षेप से इस प्रकार प्रगट किया गया हैजीव के जिस भाव के द्वारा कर्म का आगमन होता है उसे भावास्रव कहते हैं, जो रागादि अनेक भेदो स्वरूप है। योग अथवा द्रव्य कर्मों के आगमन को पास्रव (द्रव्यास्रव) जानना चाहिए।
५ द्रव्यसंग्रह में संवर के दो भेदों का निर्देश करते हुए कर्मास्रव के रोकने के कारणभूत चेतन परिणाम को भावसंवर और कर्मास्रव के रुक जाने पर जो द्रव्य कर्म का निरोध होता है उसे द्रव्यसंवर कहा गया है। आगे यहां भावसंवर के ये भेद कहे गये हैं-व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनूप्रेक्षा और अनेक भेदभूत चारित्र।
ध्यानस्तव में भी यही कहा गया है कि प्रास्रव का जो निरोध होता है उसे संवर कहते हैं। वह द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का है, जो तप व गुप्तियों आदि के द्वारा सिद्ध किया जाता है। इस प्रकार वह अनेक प्रकार का है।
६ इसी प्रकार द्रव्यसंग्रह में दो प्रकार की निर्जरा का भी निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि यथाकाल-कर्मस्थितिकाल के अनुसार-अथवा तप के द्वारा जिसका रस (परिणाम) भोगा जा चुका है वह कर्मपुद्गल जिस भाव के द्वारा प्रात्मा से पृथक् होता है उसका नाम भावनिर्जरा है, तथा कर्मपुदगल का जो प्रात्मा से पृथक् होना है उसका नाम द्रव्यनिर्जरा है। इस प्रकार निर्जरा दो प्रकार की है।
ध्यानस्तव में भी इसी अभिप्राय को प्रगट करते हुए यह कहा गया है कि तप के द्वारा अथवा काल के अनुसार जिसकी शक्ति-फलदानसामर्थ्य-को भोगा जा चुका है वह कर्म जो विनष्ट-प्रात्मप्रदेशों से पृथक्-होता है उसका नाम निर्जरा है, जो चेतन-अचेतनस्वरूप है-भाव ब द्रव्य के भेद से दो प्रकार की है। उक्त दोनों ग्रन्थों के इन पद्यों में जो शब्द व अर्थ की समानता है वह दर्शनीय है
जहकालेण तवेण य भुत्तरसं कम्मपुग्गलं जेण । भावेण सडविणेया तस्सडणं चेदि णिज्जरा दुविहा॥ द्र. सं. ३६.
१. द्रव्यसंग्रह ६. २. ध्यानस्तव ४१-४७. (तुलना के लिए द्र. सं. की ४-५ व ४२-४३ गाथायें भी द्रष्टव्य हैं) ३. द्रव्यसंग्रह ४४. .
४. ध्यानस्तव ४८. ५. द्रव्यसंग्रह २६-३१.
६. ध्यानस्तव ५२. ७. द्रव्यसंग्रह ३४-३५.
८. ध्यानस्तव ५३.