Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 114
________________ ध्यानशतकम् [२४ एयं चउन्विहं राग-दोष-मोहाउलस्स जीवस्स । रोद्दझाणं संसारवद्धणं नरयगइमूलं ॥२४॥ 'एतत्' अनन्तरोक्तम्, चतुर्विधम् चतुष्प्रकारं राग-द्वेष-मोहाङ्कितस्य, आकुलस्य वेति पाठान्तरम् । कस्य ? जीवस्य आत्मनः । किम् ? रौद्रध्यानमिति, इयमत्र चतुष्टयस्यापि त्रिया, किंविशिष्टमिदमित्यत माह-'संसारवर्द्धनम्' अोघतः, 'नरकगतिमूलं' विशेषत इति गाथार्थः ॥२४॥ साम्प्रतं रौद्रध्यायिनो लेश्याः प्रतिपाद्यन्ते कावोय-नील-काला लेसानो तिव्वसंकलिट्ठाओ। रोद्दज्झाणोवगयस्स कम्मपरिणाममणियानो ॥२५॥ पूर्ववद् व्याख्येयाः, एतावांस्तु विशेषः–तीव्रसंक्लिष्टा अतिसंक्लिष्टा एता इति ॥२।। आह-कथं पुनः रौद्रध्यायी ज्ञायत इति ? उच्यते-लिङ्गेध्यः, तान्येवोपदर्शयति लिंगाई तस्स उस्सण्ण-बहुल-नाणाविहाऽऽमरणदोसा। , तेसि चिय हिंसाइसु बाहिरकरणोवउत्तस्स ॥२६॥ 'लिङ्गानि' चिह्नानि 'तस्य' रौद्रध्यायिनः, 'उत्सन्न-बहुल-नानाविधाऽऽमरणदोषाः' इत्यत्र दोषशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते-उत्सन्नदोषः बहुलदोषः नानाविधदोषः आमरणदोषश्चेति । तत्र हिंसानुबन्ध्यादीनामन्यतरस्मिन् प्रवर्तमानः, उत्सन्नम् अनुपरतं बाहुल्येन प्रवर्तते इत्युत्सन्नदोषः । सर्वेष्वपि चैवमेव प्रवर्तत इति बहुलदोषः । नानाविधेषु त्वक्त्वक्षण-नयनोत्खननादिषु हिंसाधुपायेष्वसकृदप्येवं प्रवर्तते इति नानाविधदोषः । महदापद्गतोऽपि स्वतः, महदापद्गतेऽपि च परे आमरणादसजातानुतापः कालसौकरिकवत् अपि त्वसमाप्तानुतापानुशयपर इत्यामरणदोष इति। तेष्वेव हिंसादिषु, आदिशब्दान्मृषावादादिपरिग्रहः, ततश्च तेष्वेव हिंसानुबन्ध्यादिषु चतुर्भेदेषु । किम् ? बाह्यकरणोपयुक्तस्य सत उत्सन्नादिदोषलिङ्गानीति, बाह्यकरणशब्देनेह ___ वह चार प्रकार का रौद्रध्यान राग, द्वेष और मोह से व्याकुल जीव के होता है। वह सामान्य से उसके संसार को बढ़ाने वाला है तथा विशेष रूप से वह नरकगति का मूल कारण है ॥२४॥ आगे रौद्रध्यानी के सम्भव लेश्याओं का निर्देश किया जाता है रौद्रध्यान को प्राप्त हुए जीव के कर्मपरिपाक से होने वाली कापोत, नील और कृष्ण ये तीन अतिशय संकिलिष्ट अशुभ लेश्यायें हुआ करती हैं। जिस प्रकार काले प्रादि रंग वाले किसी पदार्थ की समीपता से स्फटिक मणि में कृष्ण वर्णादि रूप परिणमन हुआ करता है उसी प्रकार कर्म के निमित्त से आत्मा का जो परिणमन होता है उसका नाम लेश्या है और वह कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, और शुक्ल के भेद से छह प्रकार की है ॥२५॥ आगे रौद्रध्यानी के चिह्नों को दिखलाते हैं उक्त हिंसानुबन्धी प्रादि चार प्रकार के रौद्रध्यान में बाह्य करण-वचन और काय-से उपयुक्त–उपयोग युक्त होकर प्रवृत्त हुए-रौद्रध्यानी जीव के उत्सन्नदोष, बहुलदोष, नानाविधदोष और आमरणदोष ये दोष होते हैं। ये उसके लिंग-ज्ञापक चिह्न हैं, जिनके द्वारा वह पहिचाना जाता है । विवेचन-रौद्रध्यानी जीव सदा हिंसादि पापों में प्रवर्तमान रहता है, अतः उसके उक्त चार के दोष देखे जाते हैं। पूर्वोक्त हिसानुबन्धी प्रादि चार प्रकार के रौद्रध्यान में से किसी एक में जो वह बहुलता से प्रवर्तमान रहता है, यह उसका उत्सन्न दोष है । वह उक्त सभी रौद्रध्यानों में जो इसी प्रकार से--बहुलता से-प्रवृत्त रहता है, यह उसका अनुमापक बहुल दोष है। वह चमड़ी के छीलने एवं नेत्रों के उखाड़ने पादिरूप हिंसा के उपायों में जो निरन्तर इसी प्रकार से प्रवृत्त रहता है, इसे उसका ज्ञापक नानाविधदोष जानना चाहिए। वह स्वयं भारी आपत्ति से ग्रस्त होकर तथा वैसी ही आपत्ति से ग्रस्त दूसरे के विषय में भी कालसौकरिक के समान जीवन पर्यन्त पश्चात्ताप से रहित होता है, यह उस का परिचायक आमरण नाम का दोष है ॥२६॥ और भी

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