Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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रौद्रध्याननिरूपणम्
-२३]
१३
इति, तत्र परलोकापायाः — नरकगमनादयस्तन्निरपेक्षमिति गाथार्थः ॥ २१॥ उक्तस्तृतीयो भेदः, साम्प्रतं चतुर्थं भेदमुपदर्शयन्नाह-
सद्दाइ विसयसाहणधणसा रक्खणपरायणमणिट्ठ । सव्वाभिसंकणपरोवघायकलुसाउलं चित्तं ॥ २२ ॥
शब्दादयश्च ते विषयाश्च शब्दादिविषयास्तेषां साधनं कारणम्, शब्दादिविषयसाधनं च ( तच्च ) तद्धनं च शब्दादिविषयसाधनधनम्, तत्संरक्षणे – तत्परिपालने परायणम् उद्युक्तमिति विग्रहः, तथाऽनिष्टम् — सतामनभिलषणीयमित्यर्थः, इदमेव विशेष्यते — सर्वेषामभिशङ्कनेनाकुलमिति सम्बध्यते - न विद्मः कः किं करिष्यतीत्यादिलक्षणेन, तस्मात्सर्वेषां यथाशक्त्योपघात एव श्रेयानित्येवं परोपघातेन च, तथा कलुषयत्यात्मानमिति कलुषाः - कषायास्तैराकुलं व्याप्तं यत् तत् तथोच्यते, चित्तम् अन्तःकरणम्, प्रकरणारौद्रध्यानमिति गम्यते, इह च शब्दांदिविषयसाधनं धनविशेषणं किल श्रावकस्य चैत्यघनसंरक्षणे न रौद्रध्यानमिति ज्ञापनार्थमिति गाथार्थः ॥ २२॥ साम्प्रतं विशेषणाभिधानगर्भमुपसंहरन्नाह -
इय करण-कारणाणुमइ विसयमणुचितणं चउब्भेयं । श्रविरय-देसासंजय जणमणसंसेवियमहण्णं ॥ २३ ॥
'इय' एवं करणं स्वयमेव, कारणमन्यैः, कृतानुमोदनमनुमतिः करणं च कारणं चानुमतिश्च करणकारणानुमतयः, एता एव विषयः गोचरो यस्य तत्करण - कारणानुमतिविषयम्, किमिदमित्यत आह- 'अनुचिन्तनं' पर्यालोचनमित्यर्थः । 'चतुर्भेदम्' इति हिसानुबन्ध्यादिचतुष्प्रकारम्, रौद्रध्यानमिति गम्यते । धुनेदमेव स्वामिद्वारेण निरूपयति — अविरताः सम्यग्दृष्टयः, इतरे च देशासंयताः श्रावकाः, अनेन सर्वसंयतव्यवच्छेदमाह, अविरत देशासंयता एव जनाः अविरतदेशासंयतजनाः तेषां मनांसि चित्तानि तैः संसेवितं सञ्चिन्ति - तमित्यर्थः, मनोग्रहणमित्यत्र ध्यानचिन्तायां प्रधानाङ्गख्यापनार्थम् । अधन्यमित्यश्रेयस्करं पापं निन्द्यमि गाथार्थः ॥ २३॥ अधुनेदं यथाभूतस्य भवति यद्वर्द्धनं चेदमिति तदेतदभिधातुकाम आह—
दुर्गति को प्राप्त करना अनिवार्य हो जाता है ॥२१॥
अब क्रमप्राप्त विषयसंरक्षणानुबन्धी नाम के चौथे रौद्रध्यान के स्वरूप का निर्देश किया जाता है
शब्दादिरूप इन्द्रियविषयों का कारण धन है । इसी से विषयासक्त जीव का चित्त उस धन के संरक्षण में उद्यत रहता है। उसके मन में सबके प्रति यह सन्देह बना रहता है कि न जाने कौन कब क्या करेगा, इससे यथाशक्ति सबका घात कर डालना श्रेयस्कर है; इस प्रकार का जो उसका कलुषित विचार रहता है, यह चौथा रौद्रध्यान है । बह अनिष्ट है— श्रात्महितैषी सत्पुरुष उसकी कभी इच्छा नहीं करते ॥ २२॥
आगे उक्त चार प्रकार के
रौद्रध्यान का उपसंहार करते हुए उसके स्वामियों का निर्देश किया
जाता है
इस प्रकार यह चार प्रकार का अनुचिन्तन ( रौद्रध्यान) करण— स्वयं करना (कृत), कारण— अन्य से कराना ( कारित) - और अनुमति – दूसरे के द्वारा किये जाने पर उसका अनुमोदन करना; इन तीन को विषय करने वाला है, उस जघन्य ( निकृष्ट ) रौद्रध्यान का चिन्तन अविरत — व्रतरहित मिथ्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टि और देशतः श्रसंयत - पांचवें गुणस्थानवर्ती श्रावकों के मन द्वारा किया जाता है । अभिप्राय यह है कि उक्त चार प्रकार के रौद्रध्यान में से प्रत्येक कृत, कारित और अनुमोदित के भेद से तीन प्रकार का है और वह पहिले से पांचवें गुणस्थान तक होता है, आगे के प्रमत्तसंयत श्रादि गुणस्थानों में वह नहीं होता ॥ २३ ॥
वह चार प्रकार का रौद्रध्यान किस प्रकार के जीव के होता है और क्या करता है, इसे आगे प्रगट करते है