Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 112
________________ १२ ध्यानशतकम् [२१सूचकं 'पिशुनं सूचकं विदुः' इति वचनात् । सभायां साधु सभ्यं न सभ्यमसभ्यं जकार-मकारादि । न सद्भूतमसद्भुतमनतमित्यर्थः। तच्च व्यवहारनयदर्शनेनोपाधिभेदतस्त्रिधा। तद्यथा-अभूतोद्भावनं भूतनिह्नवोऽर्थान्तराभिधानं चेति । तत्राभूतोद्भावनं यथा सर्वगतोऽयमात्मेत्यादि, भूतनिह्नवस्तु नास्त्येवात्मेत्यादि, गामश्वमित्यादि ब्रुवतोऽन्तिराभिधानमिति । भूतानां सत्त्वानामुपघातो यस्मिन् तद् भूतोपघातम्-छिन्द्धि भिन्द्धि व्यापादय इत्यादि, आदिशब्दः प्रतिभेदं स्वगतानेकभेदप्रदर्शनार्थः, यथा पिशुनमनेकधाऽनिष्टसूचकमित्यादि, तत्र पिशुनादिवचनेष्वप्रवर्तमानस्यापि प्रवृत्ति प्रति प्रणिधानं दृढाध्यवसानलक्षणम्, रौद्रध्यानमिति प्रकरणाद् गम्यते । किंविशिष्टस्य सत इत्यत आह-माया निकृतिः, साऽस्यास्तीति मायावी तस्य मायाविनो वणिजादेः, तथा 'अतिसन्धानपरस्य' परवञ्चनाप्रवृत्तस्य, अनेनाशेषेष्वपि प्रवृत्तिमप्या (स्या)ह, तथा 'प्रच्छन्नपापस्य' कूटप्रयोगकारिणस्तस्यैव, अथवा धिग्जातिककुतीथिकादेरसद्भुतगुणं गुणवन्तमात्मानं ख्यापयतः, तथाहि-गुणरहितमप्यात्मानं यो गुणवन्तं ख्यापयति न तस्मादपर: प्रच्छन्नपाणेऽस्तीति गाथार्थः ॥२०॥ उक्तो द्वितीयो भेदः, साम्प्रतं तृतीयमपदर्शयति-- तह तिव्वकोह-लोहाउलस्स भूप्रोवघायणमणज्ज । परदव्वहरणचित्तं . परलोयावायनिरवेक्खं ॥२१॥ तथाशब्दो दृढाध्यवसायप्रकारसादृश्योपदर्शनार्थः । तीव्रौ उत्कटौ तौ क्रोध-लोभौ च तीव्रक्रोध-लोभी ताभ्यामाकुलः अभिभूतस्तस्य, जन्तोरिति गम्यते । किम् ? 'भूतोपहननमनार्यम्' इति हन्यतेऽनेनेति हननम्, उप सामीप्येन हननम् उपहननम्, भूतानामुपहननं भूतोपहननम्, पाराद्यातं सर्वहेयधर्मेम्य इत्यायं नाय॑मनार्यम्, किं तदेवंविधमित्यत पाह-परद्रव्यहरणचित्तम्, रौद्रध्यानमिति गम्यते, परेषां द्रव्यं परद्रव्यं सचित्तादि, तद्विषयं हरणचित्तं परद्रव्यहरणचित्तम्, तदेव विशेष्यते-किम्भूतं तदित्यत आह-परलोकापायनिरपेक्षम् विवेचन--अनिष्ट के सूचक बचन को पिशुन वचन कहा जाता है। गाली प्रादि रूप अशिष्ट वचन का नाम असभ्य वचन है। अयथार्थ वचन को प्रसद्भूत कहते हैं । वह तीन प्रकार का है-प्रभूतोद्भावन, भूतनिह्नव और अन्तराभिधान । आत्मा सर्वव्यापक है, इत्यादि प्रकार के कथन को प्रभूतोद्भावन कहा जाता है। इसका कारण यह है कि प्रात्मा वस्तुतः वैसा नहीं है-वह तो प्राप्त शरीर के प्रमाण रहता है, न वह सर्वव्यापक है और न अणुरूप भी है। प्रात्मा है ही नहीं, इत्यादि प्रकार के सदपलापक-विद्यमान वस्तु का प्रभाव प्रकट करने वाले--वचन को भूतनिलव कहते हैं। गाय को घोड़ा और घोड़ा को गाय कहना, इत्यादि प्रकार के वचन का नाम अर्थान्तराभिधान है। मार डालो, काट डालो, इत्यादि प्रकार से प्राणिघात के सूचक वचन का नाम भूतघात है। उक्त वचनों में प्रवृत्त न होते हुए भी उनकी प्रवृत्ति के प्रति जो जीव का दृढ़ विचार रहा करता है, यह द्वितीय (मृषानुबन्धी) रौद्रध्यान का लक्षण है । यह रौद्रध्यान उस कपटी व वंचक मनुष्य के होता है जिसके अन्तःकरण में पाप छिपा रहता व जो स्वयं गुणवान् न होते हुए भी अपने को गुणवान् प्रकट करता है ॥२०॥ पागे स्तेयानुबन्धी नामक तीसरे रौद्रध्यान का स्वरूप कहा जाता है इसी प्रकार जो तीव्र क्रोध व लोभ से व्याकुल रहता है उसका चित्त (विचार) दूसरों के चेतनअचेतन द्रव्य के अपहरण में संलग्न रहता है। यह परद्रव्य के हरण का विचार निन्द्य तो है ही, साथ ही वह प्राणिहिंसा का भी कारण है। इस प्रकार का रौद्रध्यानी परलोक में होने वाले अपाय-नरकगति की प्राप्ति प्रादि-की भी अपेक्षा नहीं करता ॥ विवेचन-लोकव्यवहार में धन को प्राण जैसा माना जाता है। जो दुष्ट दूसरे के धन का अपहरण करना चाहता है वह इसके लिए धन के स्वामी का घात भी कर डालता है। कदाचित् वह हत्या न भी करे, तो भी अपने धन के चले जाने से प्राणी अतिशय दुखी होता है और कदाचित् संक्लेश के वश होकर वह अात्मघात भी कर बैठता हैं। इस प्रकार परद्रव्य का अपहरण करने वाला रौद्रध्यानी द्रव्य व भाव दोनों ही प्रकार की हिंसा का जनक होता है, जिसके परिणामस्वरूप उसका नरकादि

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