Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 116
________________ १६ ध्यानशतकम् [३१ नाः, पाठान्तरं वा जनिता इति गाथार्थः ॥३०॥ साम्प्रतं ज्ञानभावनास्वरूप-गुणदर्शनायेदमाह __णाणे णिच्चन्भासो कुणइ मणोधारणं विसुद्धि च । नाणगुणमणियसारो तो झाइ सनिच्चलमईप्रो॥३२॥ ___ ज्ञाने श्रुतज्ञाने, नित्यं सदा, अभ्यासः प्रासेवनालक्षणः, करोति निर्वर्तयति । किम्? मनसः अन्तःकरणस्य, चेतस इत्यर्थः, धारणम् अभव्यापारनिरोधेनावस्थानमिति भावना तथा 'विशुद्धि च' तत्र विशोधनं विशुद्धिः सूत्रार्थयोरिति गम्यते, ताम्, च-शब्दाद् भवनिर्वेदं च, एवं 'ज्ञानगुणमुणितसारः' इति-ज्ञानेन गुणानां जीवाजीवाश्रितानाम 'गूण-पर्यायवत द्रव्यम' [त. स. ५-३७] इति वचनात, पर्यायाणां च तदविनाभा नाम्, मुणितः ज्ञातः सारः परमार्थो येन स तयोच्यते, ज्ञानगुणेन वा ज्ञान माहात्म्येनेति भावः, ज्ञातः सारो येन, विश्वस्येति गम्यते, स तथाविधः । ततश्च पश्चाद् 'ध्यायति' चिन्तयति । किविशिष्टः सन् ? सुष्ठुअतिशयेन निश्चला निष्प्रकम्पा सम्यग्ज्ञानतोऽन्यथाप्रवत्तिकम्परहितेति भावः, मतिः बद्धिर्यस्य स तथाविध इति गाथार्थः ॥३१॥ उक्ता ज्ञानभावना, साम्प्रतं दर्शनभावनास्वरूप-गुणदर्शनार्थमिदमाह संकाइदोसरहिओ पसम-थेज्जाइगुणगणोवेश्रो । होइ असंमूढमणो सणसुद्धीए झाणंमि ॥३२॥ 'शङ्कादिदोषरहितः' शङ्कनं शङ्का, आदिशब्दात् काङ्क्षादिपरिग्रहः, उक्तं च-'शङ्का-काङ्क्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसा-पग्पाषण्डसंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतिचाराः [त. सू. ७-१८] इति, एतेषां च स्व अब ज्ञानभावना के स्वरूप व उसके गुण के प्रगट करने के लिए यह कहा जाता है ज्ञान (श्रुतज्ञान) के विषय में निरन्तर किया गया अभ्यास मनके धारण को करता है-उसे अशुभ व्यापार से रोक कर स्थिर करता है तथा सूत्र और अर्थविषयक विशुद्धि को भी करता है। इस प्रकार ज्ञान के द्वारा जिसने गुणों के जीव और अजीव में रहने वाले गुणों एवं उनकी अविनाभावी पर्यायों के भी सार (यथार्थता) को जान लिया है अथवा ज्ञान गुण के द्वारा जिसने विश्व के सार (यथार्थ स्वरूप को) जान लिया है वह अतिशय स्थिरबुद्धि होकर ध्यान करता है। अभिप्राय यह है कि ज्ञान के अभ्यास से ध्यान की कारणभूत मन की स्थिरता होती है, अतः ध्यान की सिद्धि के लिए ज्ञान का अभ्यास करना प्राकश्यक है ॥३१॥ अब दर्शनभावना के स्वरूप और गण को दिखलाते हैं जो शंका-कांक्षादि दोषों से रहित होकर प्रश्रम-स्वमत और परमत सम्बन्धी तम्वविषयक परिज्ञान से उत्पन्न प्रकृष्ट श्रम-अथवा प्रशम एवं जिनशासन बिषयक स्थिरता आदि गुणों के समूह से युक्त होता है उसका मन दर्शनविशुद्धि के कारण ध्यान के विषय में मढता (विपरीतता) को प्राप्त नहीं होता। विवेचन-जीवादि पदार्थ जिस स्वरूप से अवस्थित हैं उनका उसी रूप से श्रद्धान करना, इसका नाम सम्यग्दर्शन है। उसके ये पांच दोष (अतिचार) हैं जो उसको मलिन किया करते हैं-शंका, कांक्षा, विचिकित्सा अथवा विद्वज्जगप्सा, परपाषण्डप्रशंसा मौर परपाषण्डसंस्तव । जिनप्ररूपित पदार्थों में जो धर्मास्तिकाय आदि गहन पदार्य हैं उनका बुद्धि की मन्दता के कारण निश्चय न होने पर 'अमुक पदार्थ ऐसा ही होगा या अन्यथा होगा' इस प्रकार से सन्देह करना, यह शंका कहलाती है। वह देशशंका और सर्वशंका के भेद से दो प्रकार की है। प्रात्मा क्या असंख्य प्रदेशों वाला है या प्रदेशों से रहित निरवयव है, इस प्रकार देश विषयक शंका का नाम देशशंका है। समस्त अस्तिकाय क्या ऐसे ही होंगे या अन्य प्रकार होंगे, इस प्रकार समस्त ही अस्तिकायों के स्वरूप में सन्देह करना, यह सर्वशंका कहलाती है। इस प्रकार का सन्देह मिथ्यात्वरूप ही है। कहा भी गया है पयमक्खरं च एक्कं जो न रोएइ सुत्तनिट्टि । सेसं रोयंतोवि हु मिच्छद्दिट्ठी मुणेयव्वो॥ अर्थात् जिसको सूत्रनिर्दिष्ट एक पद या अक्षर भी नहीं रुचता है उसे शेष अन्य सबके रुचने पर

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