Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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रौद्रध्याननिरूपणम्
दृष्टयः सम्यग्दृष्टयश्च देशविरता: एक द्वयाद्यणुव्रतघरभेदाः श्रावकाः प्रमादपराः प्रमादनिष्ठाश्च संयताश्च प्रमादपरसंयताः, ताननुगच्छतीति विग्रहः, नैवाप्रमत्तसंयतानिति भावः । इदं च स्वरूपतः सर्वप्रमादमूलं वर्तते, यतश्चैवमतो 'वर्जयितृव्यम्' परित्यजनीयम् केन ? 'यतिजनेन' साधुलोन उपलक्षणत्वात् श्रावक-जनेन, परित्यागार्हत्वादेवास्येति गाथार्थः ॥ १८ ॥ उक्तमार्तध्यानम्, साम्प्रतं रौद्रध्यानावसरः, तदपि चतुर्विधमेव, तद्यथा — हिसानुबन्धि मृषानुबन्धि स्तेयानुबन्धि विषयसंरक्षणानुबन्धि च । उक्तं चोमास्वातिवाचकेन – हिंसा - ऽनृत- स्तेय - विषय - संरक्षणेभ्यो रौद्रम् इत्यादि [त. सू. ६- ३६ ] । तत्राऽऽद्यभेदप्रतिपादनायाहसत्तवह-वेह - बंधण - डहणं कण मारणाइपणिहाणं ।
इकोहग्गहघत्थं निग्घिणमणसोऽहमविवागं ॥ १६ ॥
सत्त्वाः एकेन्द्रियादयः तेषाम् वध-वेध - बन्धन- दहन |ऽङ्कन-मारणादिप्रणिधानम् — तत्र वधः ताडनं करकशलतादिभिः वेधस्तु नासिकादिवेधनं कीलिकादिभिः बन्धनं संयमनं रज्जु-निगडादिभिः, दहनं प्रतीतमुल्मुकादिभिः, अङ्कनं लाञ्छनं श्व-शृगालचरणादिभिः, मारणं प्राणवियोजनमसि - शक्ति - कुन्तादिभिः, श्रादिशब्दादागाढ- परितापन - पाटनादिपरिग्रहः, एतेषु प्रणिधानम् । प्रकुर्वतोऽपि करणं प्रति दृढाव्यवसानमित्यर्थः, प्रकरणाद् रौद्रध्यानमिति गम्यते । किंविशिष्टं प्रणिधानम् ? 'अतिक्रोधग्रहग्रस्तम्' अतीवोत्कटो यः क्रोधः रोषः, स एवापायहेतुत्वाद् ग्रह इव ग्रहस्तेन ग्रस्तम् श्रभिभूतम्, क्रोधग्रहणाच्च मानादयो गृह्यन्ते । किविशिष्टस्य सत इदमित्यत श्राह - 'निर्घुणमनसः' निर्घृणं निर्गतदयं मनः चित्तमन्तःकरणं यस्य स निर्घुणमनास्तस्य तदेव विशेष्यते 'अधमविपाकम्' इति श्रधमः जघन्यो नरकादिप्राप्तिलक्षणो विपाकः परिणामो यस्य तत्तथाविधमिति गाथार्थः ॥ १६ ॥ उक्तः प्रथमो भेदः, साम्प्रतं द्वितीयमभिधित्सुराह -
पिसुणासन्भासम्भूय - भूयघायाइवयणपणिहाणं । मायाविणोssसंधणपरस्स
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पच्छन्नपावस्स ॥२०॥
'पिशुनाऽसभ्याऽसद्भूत-भूतघातादिवचनप्रणिधानम्' इत्यत्रानिष्टष्य सूचकं पिशुनं पिशुनमनिष्ट
प्रमाद का मूल कारण है, इसलिए मुनिजन को उसका परित्याग करना चाहिए । यहाँ मुनिजन को जो उसके छोड़ने का उपदेश दिया गया है, उसे उपलक्षण जानकर उससे श्रावक जनों को भी ग्रहण किया गया है। तात्पर्य यह है कि अनर्थ का मूल होने से उक्त आर्तध्यान का त्याग मुनि व श्रावक दोनों को ही करना चाहिए ॥ १८ ॥
इस प्रकार श्रार्तध्यान का निरूपण करके श्रागे क्रम प्राप्त रौद्रध्यान का वर्ण किया जाता है। वह भी हिसानुबन्धी, मृषानुबन्धी, स्तेयानुबन्धी श्रौर विषयसंरक्षणानुबन्धी के भेद से चार प्रकार का है । उनमें प्रथम का निरुगण करते हैं—
अंतिशय क्रोधरूप पिशाच के वशीभूत होकर निर्दय अन्तःकरण वाले जीव के जो प्राणियों के वध, वेध, बन्धन, दहन, अंकन और मारण आदि का प्रणिधान – उक्त कार्यों को न करते हुए भी उनके करने का जो दृढ़ विचार होता है, यह हिसानुबन्धी नामक प्रथम रौद्रध्यान है । इसका विपाक प्रधम ( निकृष्ट) है—उसके परिणामस्वरूप नरकादि दुर्गति प्राप्त होने वाली है । चाबुक श्रादि से ताड़ित करना, इसका नाम वध हैं। कील आदि के द्वारा नासिका आदि के वेधने को वेध कहा जाता है, रस्सी श्रादि से बाँधकर रखना, यह बन्धन कहलाता है । उल्मुक आदि से जलाने को दहन करते हैं । तपी हुई लोहे की शलाका आदि से दागने (चिह्नित करने) का नाम अंकन है । मारण से अभिप्राय प्राणविघात का है ॥१॥
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अब क्रमप्राप्त द्वितीय (मृषानुबन्धी) रौद्रध्यान का स्वरूप कहा जाता है
मायाचारी व परवंचना - दूसरों के ठगने में तत्पर ऐसे प्रच्छन्न (दृश्य) पाप युक्त प्रन्तःकरण वाले जीव के पिशुन, असभ्य, प्रसद्भूत और भूतघात आदि रूप वचनों में प्रवृत्त न होने पर भी जो उनके प्रति दृढ़ श्रध्यवसाय होता है; यह मृषानुबन्धी नामक द्वितीय रौद्रध्यान का लक्षण है ॥