Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 101
________________ श्रीमद्धरिभद्रसूरि-विरचित-वृत्त्या समन्वितं ध्यानशतकम् (ध्यानाध्ययनापरनामधेयम्) ध्यानशतकस्य च महार्थत्वाद्वस्तुतः शास्त्रान्तरत्वात् प्रारम्भ एव विघ्नविनायकोपशान्तये मङ्गलार्थमिष्टदेवतानमस्कारमाह वीरं सुक्कज्झाणग्गिदड्ढकम्मिधण पणमिऊणं । जोईसरं सरण्णं झाणज्झयणं पवक्खामि ॥१॥ वीरं शुक्लध्यानाग्निदग्धकर्मेन्धनं प्रणम्य ध्यानाध्ययनं प्रवक्ष्यामीति योगः, तत्र 'ईर गति-प्रेरणयोः' इत्यस्य विपूर्वस्याजन्तस्य विशेषेण ईरयति कर्म गमयति याति वेह शिवमिति वीरस्तं वीरम्, किंविशि तमित्यत आह-शुचं क्लमयतीति शुक्लम्, शोकं ग्लपयतीत्यर्थः, ध्यायते-चिन्त्यतेऽनेन तत्त्वमिति ध्यानम्, एकाग्रचित्तनिरोध इत्यर्थः, शुक्लं च तद् ध्यानं च तदेव कर्मेन्धनदहनादग्निः शुक्लध्यानाग्निः, तथा मिथ्यादर्शनाऽविरति-प्रमाद-कषाय-योगः क्रियते इति कर्म-ज्ञानावरणीयादि, तदेवातितीव्रदुःखानलनिबन्धनत्वादिन्धनं कर्मेन्धनम्, ततश्च शुक्लध्यानाग्निना दग्धं-स्व-स्वभावापनयनेन भस्मीकृतं कर्मेन्धनं येन स तथाविधस्तम्, 'प्रणम्य' प्रकर्षेण मनोवाक्काययोगर्नत्वेत्यर्थः, समानकर्तृकयोः पूर्वकाले क्त्वा-प्रत्ययविधानात्, घ्यानाध्ययनं प्रवक्ष्यामीति योगः, तत्राधीयत इत्यध्ययनम्, 'कर्मणि ल्युट' पठ्यत इत्यर्थः, ध्यानप्रतिपादकमध्ययनं २, तद् याथात्म्यमङ्गीकृत्य प्रकर्षण वक्ष्ये-अभिधास्ये इति, किंविशिष्टं वीरं प्रणम्येत्यत आह–'योगेश्वरं योगीश्वरं वा' तत्र युज्यन्ते इति योगा:-मनोवाक्कायव्यापारलक्षणाः, तरीश्वर:-प्रधानस्तम्, तथाहि-अनुत्तरा एव भगवतो मनोवाक्कायव्यापारा इति, यथोक्तम्-'दव्वमणोजोएणं मणणाणीणं अणुत्तराणं च । संसयवोच्छित्ति केवलेण नाऊण सइ कुणइ ॥१॥ रिभियपयक्खरसरला मिच्छितरतिरिच्छसगिरपरिणामा । मणणिव्वाणी वाणी जोयणनिहारिणी जं च ॥२॥ एक्का य अणेगेसि संसयवोच्छेयणे अपडिभूया। न य णिविज्जइ सोया __ मैं शुक्लध्यानरूप अग्नि के द्वारा कर्मरूप इंधन के जला देने वाले योगीश्वर व शरणभूत वीर को नमस्कार करके ध्यानाध्ययन को कहूंगा। विवेचन-यहां ग्रन्थकार ने सर्वप्रथम वीर को नमस्कार करके प्रकृत ध्यानाध्ययन-ध्यान के प्ररूपक इस ध्यानशतक ग्रन्थ-के रचने की प्रतिज्ञा की है। 'वीर' से यहाँ अन्तिम तीर्थंकर महावीर जिन की अथवा ज्ञानावरणादिरूप समस्त कर्म को नष्ट करके मुक्ति को प्राप्त कर लेने वाले परमात्मा की विवक्षा रही है। उस वीर की विशेषता यहां शुक्लध्यानाग्निदग्धकर्मेन्धन, योगेश्वर अथवा योगीश्वर और शरण्य इन तीन विशेषणों के द्वारा प्रगट की गई है १. शुक्लध्यानाग्निदग्धकर्मेन्धन–'शुचं क्लमयतीति शुक्लम्' इस निरुक्ति के अनुसार जो ध्यान 'शोक आदि दोषों को दूर करने वाला है वह शुक्लध्यान कहलाता है। क्रियते इति कर्म' इस निरुक्ति के अनुसार जो मिथ्यादर्शन व अविरति आदि के द्वारा किया जाता है—बांधा जाता है—ऐसे ज्ञानावरणादिरूपता को प्राप्त पुद्गलपिण्ड को कर्म कहा जाता है। वह दुःखरूप अग्नि को प्रज्वलित करने के लिए

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