Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 104
________________ ध्यानशतकम् [४अंतोमुहुत्तपरप्रो चिता झाणंतरं व होज्जाहि। सुचिरंपि होज्ज बहुवत्थुसंकमे झाणसंताणो॥४॥ 'अन्तर्मुहूर्तात् परतः' इति भिन्नमुहूर्तादूर्ध्वम्, 'चिन्ता' प्रागुक्तस्वरूपा तथा 'ध्यानान्तरं वा भवेत्' तत्रेह न ध्यानादन्यद् ध्यानं ध्यानान्तरं परिगृह्यते । किं तर्हि ? भावनानुप्रेक्षात्मकं चेत इति, इदं च ध्यानान्तरं तदुत्तरकालभाविनि ध्याने सति भवति, तत्राप्ययमेव न्याय इति कृत्वा ध्यानसन्तानप्राप्तिर्यतः अतस्तमेव कालमानं वस्तुसङ्क्रमद्वारेण निरूपयन्नाह—'सुचिरमपि' प्रभूतमपि, कालमिति गम्यते, भवेत् बहुवस्तुसङ्क्रमे सति 'ध्यानसन्तानः' ध्यानप्रवाह इति, तत्र बहूनि च तानि वस्तूनि बहुवस्तूनि आत्मगत-परगतानि गृह्यन्ते, तत्रात्मगतानि मनःप्रभृतीनि परगतानि द्रव्यादीनीति, तेषु सङ्क्रमः सञ्चरणमिति गाथार्थः ॥४॥ इत्थं तावत् सप्रसङ्गं ध्यानस्य सामान्येन लक्षणमुक्तम्, अधुना विशेषलक्षणाभिधित्सया ध्यानोद्देशं विशिष्टफलभावं च संक्षेपतः प्रदर्शयन्नाह अट्ट रुइं धम्म सुक्कं झाणाइ तत्थ अंताई। ___ निव्वाणसाहणाई भवकारणमट्ट-रुद्दाई ॥५॥ आर्त रौद्रं धर्म्य शुक्लम्, तत्र ऋतं दुःखम्, तन्निमित्तो दृढाध्यवसाय:, ऋते भवमातं क्लिष्टमित्यर्थः,हिंसाद्यतिक्रौर्यानुगतं रौद्रम्, श्रुत-चरणधर्मानुगतं धर्म्यम्, शोधयत्यष्टप्रकारं कर्म-मलं शुचं वा क्लमयतीति शुक्लम, अमूनि ध्यानानि वर्तन्ते, अधुना फलहेतुत्वमुपदर्शयति-तत्र ध्यानचतुष्टये 'अन्त्ये' चरमे सूत्रक्रमप्रामाण्याधर्म-शुक्ले इत्यर्थः, किम् ? 'निर्वाणसाधने' इह निवृतिः निर्वाणं सामान्येन सुखमभिधीयते, तस्य साधनेकारणे इत्यर्थः, ततश्च-अट्टेण तिरिक्खगई रुद्दज्झाणेण गम्मती नरयं । धम्मेण देवलोयं सिद्धिगई सुक्कभाणेणं ॥१॥ इति यदुक्तं तदपि न विरुद्धयते, देवगति-सिद्धिगत्योः सामान्येन सुख सिद्धेरिति, अथापि निर्वाणं अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् उनके चिन्ता अथवा ध्यानान्तर होता है। प्रात्म-परगत बहुत वस्तुओं में संक्रमण (संचार) के होने पर उस ध्यान की परम्परा दीर्घ काल तक चल सकती है। विवेचन-यहां अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् छद्मस्थ जीवों के जो ध्यानान्तर का निर्देश किया गया है उससे ध्यान से भिन्न अन्य ध्यान को नहीं ग्रहण करना चाहिए, किन्तु भावना व अनुप्रेक्षा स्वरूप चित्त को ग्रहण करना चाहिए। वह ध्यानान्तर भी तभी होता है जब कि उसके पश्चात् ध्यान होने वाला हो। यही क्रम आगे भी समझना चाहिए। इस प्रकार से ध्यान का प्रवाह प्रात्म-परगत बहुत वस्तुओं में संचार के होने से दीर्घ काल तक चल सकता है। यहां प्रात्मगत से अन्तरंग मन प्रादि की तथा परगत से बहिरंग द्रव्यादिक को विवक्षा रही है ॥४॥ ___ इस प्रकार सामान्य से ध्यान का लक्षण कहकर अब आगे उसके भेद और उनके फल का निवेश करते हैं प्रात, रौद्र, धर्म या धर्म्य और शुक्ल ये उस ध्यान के चार भेद हैं। इनमें अन्त के दो ध्यानधर्म्य और शुक्ल-निर्वाण के साधक हैं तथा प्रार्त और रौद्र ये दो ध्यान संसार के कारण हैं। विवेचन-'ऋते भवम् पार्तम्' इस निरुक्ति के अनुसार दुख में होने वाली संक्लिष्ट परिणति का नाम प्रार्तध्यान है। हिंसादि रूप अतिशय क्रूरतायुक्त चिन्तन को रौद्रध्यान कहते हैं। श्रुत और चारित्ररूप धर्म से युक्त ध्यान धर्म्यध्यान कहलाता है। 'शोधयति अष्टप्रकारं कर्म-मलं शुचं वा क्लमयतीति शुक्लम्' इस निरुक्ति के अनुसार जो ध्यान ज्ञानावरणादि पाठ प्रकार के कर्मरूप मल को दूर करता है अथवा शोक को नष्ट करता है उसे शुक्लध्यान कहा जाता है। यहां उक्त चार ध्यानों में से धर्म और शक्ल को जो निर्वाण का कारण तथा प्रार्त और रौद्र को संसार का कारण कहा गया है इसे सामान्य कथन समझना चाहिए। विशेषरूप से पागम में प्रार्तध्यान को तिर्यच गति का, रौद्रध्यान को नरकगति का, धर्मध्यान को देवगतिका और शुक्लध्यान को सिद्धगति का कारण बतलाया गया है। जैसे अट्टण तिरिक्खगई रुद्दज्झाणेण गम्मती नरयं । धम्मेण देवलोयं सिद्धगई सूक्कज्झाणेणं ॥

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