Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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ध्यानशतकम्
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तिप्पइ सव्वाउएपि ||३|| सव्वसुरेहितोवि हु अहिगो कंतो य कायजोगो से । तहवि य पसंतरूवे कुणइ या पाणिसंघा ॥ ४ ॥ इत्यादि, युज्यते वाऽनेन केवलज्ञानादिना आत्मेति योगः - धर्म - शुक्लध्यानलक्षणः, स येषां विद्यत इति योगिनः साधवस्तै रीश्वरः, तदुपदेशेन तेषां प्रवृत्तेस्तत्सम्बन्धादिति तेषां वा ईश्वरो योगीश्वरः, ईश्वरः प्रभुः स्वामीत्यनर्थान्तरम्, योगीश्वरम्, अथवा योगिस्मर्यं - योगिचिन्त्यं ध्येयमित्यर्थः, पुनरपि स एव विशेष्यते – 'शरण्यम्, तत्र शरणे साधुः शरण्यस्तम् — रागादिपरिभूताश्रितसत्त्ववत्सलम्, रक्षकमित्यर्थः, ध्यानाध्ययनं प्रवक्ष्यामीत्येतद् व्याख्यातमेव । अत्राऽऽह — यः शुक्लध्यानाग्निना दग्धकर्मेन्धनः स योगेश्वर एव, यश्च योगेश्वरः स शरण्य एवेति गतार्थे विशेषणे, न, अभिप्रायापरिज्ञानात्, इह शुक्लध्यानाग्निना दग्धकर्मे - न्धनः सामान्यकेवल्यपि भवति, न त्वसौ योगेश्वरः, वाक्कायातिशयाभावात् स एव च तत्त्वतः शरण्य इति ज्ञापनार्थमेवादुष्टमेतदपि, तथा चोभयपदव्यभिचारेऽज्ञातज्ञापनार्थं च शास्त्रे विशेषणाभिधानमनुज्ञातमेव पूर्वमुनिभिरित्यलं विस्तरेणेति गाथार्थः ॥ १ ॥ साम्प्रतं ध्यानलक्षणप्रतिपादनायाऽऽह
जं थिरमज्भवसाणं तं भाणं जं चलं तयं चित्तं ।
तं होज्ज भावणा वा अणुपेहा वा श्रहव चिंता ॥२॥
'यद्' इत्युद्देशः स्थिरम् - निश्चलम् श्रध्यवसानम् - मन एकाग्रतालम्बनमित्यर्थः, 'तद्' इति निर्देशे, 'ध्यानम् ' प्राग्निरूपितशब्दार्थम्, ततश्चैतदुक्तं भवति - यत् स्थिरमध्यवसानं तद् ध्यानमभिधीयते, 'यच्चलम्' इति यत् पुनरनवस्थितं तच्चित्तम्, तच्चौघतस्त्रिधा भवतीति दर्शयति- ' तद्भवेद्भावना वा' इति तच्चित्तं भवेद्भावना – भाव्यत इति भावना ध्यानाभ्यासक्रियेत्यर्थः, वा विभाषायाम्, 'अनुप्रेक्षा वा' इति अनु – पश्चाद्भावे प्रेक्षणं प्रेक्षा, सा च स्मृतिध्यानाद् भ्रष्टस्य चित्तचेष्टेत्यर्थः, वा पूर्ववत् ' अथवा चिन्ता' इति अथवा-शब्दः प्रकारान्तरप्रदर्शनार्थः चिन्तेति या खलूक्तप्रकारद्वय रहिता चिन्ता मनश्चेष्टा सा चिन्तेति ईंधन का काम करता है। इस कर्मरूप ईंधन को उक्त वीर प्रभु ने शुक्लध्यानरूप अग्नि के द्वारा भस्मसात् कर दिया - श्रतएव उन्हें शुक्लध्यानाग्निदग्धकर्मेन्धन कहा गया है।
समान 'योगीश्वर' भी होता
२. योगेश्वर या योगीश्वर - योग का अर्थ है मन, वचन व काय का व्यापार । वह मनोयोग, वचनयोग और काययोग के भेद से तीन प्रकार का है। ये तीनों योग चूंकि वीर भगवान् के अनुत्तर (असाधारण) थे, श्रतएव उन्हें योगेश्वर - योगों के द्वारा प्रभुता को प्राप्त कहा गया है। मूल गाथा में 'जोईसर' शब्द का प्रयोग किया गया है। उसका संस्कृत रूप 'योगेश्वर' के है - जिसके श्राश्रय से श्रात्मा केवलज्ञानादि से युक्त होता है उसका नाम योग (ध्यान) है, जो शुक्लध्यान स्वरूप है । ऐसे योग से युक्त योगियों-मुनियों के श्राश्रय से उक्त वीर भगवान् प्रभुता को प्राप्त थे या उनके प्रभु थे, इसीलिए वे योगीश्वर थे । उक्त 'जोईसर' शब्द का तीसरा संस्कृत रूप 'योगिस्मर्य' भी हो सकता है। तदनुसार वे योगी जनों के द्वारा स्मयं -उनके ध्यान के विषय थे ।
३. शरण्य-राग-द्वेषादि से पराभूत जीवों के उक्त राग-द्वेषादि से उन्हें मुक्त कराने के कारण - तीसरा
श्रागे ध्यान का लक्षण कहा जाता है
जो स्थिर श्रध्यवसान - एकाग्रता को प्राप्त मन है उसका नाम ध्यान है । इसके विपरीत जो चंचल (स्थिर) चित्त है उसे सामान्य से भावना, अनुप्रेक्षा प्रथवा चिन्ता कहा जाता है । इस तरह तीन प्रकार का है ॥
वह
विवेचन - यद्यपि सामान्य से भावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता में भेद नहीं है; पर विशेष रूप में वे तीनों भिन्न भी हैं- - भावना से ध्यानाभ्यास की क्रिया अभिप्रेत है । अनु श्रर्थात् पश्चाद्भाव में जो प्रेक्षण है उसका नाम श्रनुप्रेक्षा है, अभिप्राय उसका यह है कि स्मृतिरूप ध्यान से चित्त की जो चेष्टा होती है उसे अनुप्रेक्षा समझना चाहिए । उक्त भावना और रहित जो मन की प्रवृत्ति होती है उसे चिन्ता कहा जाता है ||२||
भ्रष्ट होने पर जीव के
अनुप्रेक्षा इन दोनों से
रक्षक होने से — श्रपने दिव्य उपदेश के द्वारा विशेषण 'शरण्य' भी दिया गया है ॥ १ ॥