Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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विषय
वीर को प्रणाम कर ध्यानाध्ययन के कहने की प्रतिज्ञा
ध्यान का लक्षण
विषयानुक्रमणिका (ध्यानशतक)
गाथांक | विषय
ध्यान का काल व स्वामी
ध्यानकाल के समाप्त होने पर तत्पश्चात्
छद्मस्थों के क्या होता है, इसका स्पष्टीकरण
ध्यान के मेद व उनका फल
प्रातंध्यान के चार भेद व उनका स्वरूप यह चार प्रकार का श्रार्तध्यान कैसे जीव के
होता है और उसका क्या परिणाम होता है, इसका स्पष्टीकरण
मुनि के आर्तध्यान की सम्भावना व उसका निराकरण
मार्तध्यान संसार का कारण क्यों है ? श्रार्तध्यान में सम्भव लेश्याओं का निर्देश श्रार्तध्यान के परिचायक लिंग
श्रार्तध्यान के स्वामी
चार भेदों में विभक्त रौद्रध्यान का
स्वरूप
रौद्रध्यान के स्वामियों का निर्देश यह रौद्रध्यान कैसे जीव के होता है।
व उसका क्या परिणाम होता है, इसका निर्देश
रौद्रध्यान में सम्भव लेश्याओं का निर्देश रौद्रध्यान के अनुमापक लिंग धर्मध्यान की प्ररूपणा में द्वारों का निर्देश धर्म ध्यान में उपयोगी चार भावनाओं के निर्देशपूर्वक उनका स्वरूप
धर्मध्यान के योग्य देश
१ धर्मध्यान के योग्य काल
धर्मध्यान के योग्य प्रासन
२
३ धर्मध्यान में देश, काल व श्रासन की
अनियमितता दिखलाते हुए योगों के समाधान की अनिवार्यता
४
धर्मध्यान के श्रालम्बन
५धर्मध्यान व शुक्लध्यान के क्रम का
निरूपण
ध्यानगत ध्यातव्य (ध्येय) के चार भेदों का निर्देश कर उनमें जिनाज्ञा की विशेषता प्रगट करते हु तद्विषयक
६-६
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११-१२
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१५-१७
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१६-२२
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२६-२७
२५-२६
३०-३४
श्रद्धान का कारण ध्यातव्य के दूसरे भेदभूत पाय का
गाथांक
३५-३७
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४०-४१
४२-४३
चार प्रकार के शुक्लध्यान के ध्याता धर्मध्यान के समाप्त होने पर चिन्तनीय
अनित्यादि भावनाओं का निर्देश
૪૪
४५-४६
स्वरूप
ध्यातव्य के तीसरे भेदभूत विपाक का स्वरूप ध्यातव्य के चौथे भेद में द्रव्यों के लक्षण,
संस्थान व प्रासन आदि के साथ लोक के स्वरूप एवं तद्गत भूमियों और वातवलयों श्रादि का निर्देश इसी प्रसंग में जीव के स्वरूप को दिखलाते हुए उसके संसारपरिभ्रमण के कारण के
निर्देशपूर्वक उससे पार होने का उपाय ५५-६० मोक्षसुख का स्वरूप
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धर्मध्यान के प्रकृत ध्यातव्य का उपसंहार धर्भध्यान के ध्याता
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५२-५४
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