Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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प्रस्तावना
वर्णन विस्तार से किया गया है वहां ध्यानस्तव में उसका वर्णन बहुत संक्षेप से किया गया है। फिर भी वह अपने आपमें परिपूर्ण है । उसमें ज्ञानार्णव के साथ कुछ समानता दृष्टिगोचर होती है । यथा
ज्ञानार्णव में बहिरात्मा के स्वरूप को दिखलाते हुए यह कहा गया है कि जो शरीर प्रादि में प्रात्मबुद्धि रखता है उसे बहिरात्मा जानना चाहिए। इस बहिरात्मस्वरूप को छोड़कर व अन्तरात्मा होकर विशुद्ध व अविनश्वर परमात्मा का ध्यान करना चाहिए। यहां उस अन्तरात्मा के स्वरूप को दिखलाते हुए यह कहा गया है कि जो बाह्य पदार्थों का अतिक्रमण करके प्रात्मा में ही प्रात्मा का निश्चय करता है वह अन्तरात्मा कहलाता है।
ध्यानस्तव में भी लगभग इसी अभिप्राय को व्यक्त करते हुए यह कहा गया है कि जो जीव शरीर, इन्द्रिय, मन और वचन में ममकार व अहंकार बुद्धि को करता है वह बहिरात्मा कहलाता है और हे भगवन् ! वह आपको देख नहीं सकता है आपका ध्यान करने में असमर्थ रहता है । इसके विपरीत जो शरीर व प्रात्मा में भेद करता हुआ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से सम्पन्न होकर प्रमाण, नय और निक्षेप के प्राश्रय से नौ पदार्थों, सात तत्त्वों, छह द्रव्यों और पांच अस्तिकायों को यथार्थरूप में जानता है उसे अन्तरात्मा कहते हैं और वह आपको देख सकता है- परमात्मा के ध्यान में समर्थ होता है।
ध्यानस्तव में जिन पिण्डस्थ-पदस्थ आदि ध्यानों का संक्षेप से विचार किया गया है उनका वर्णन ज्ञानार्णव' में काफी विस्तार से किया गया है। दोनों के वर्णन में शब्द व अर्थ से कुछ समानता इस प्रकार देखी जाती है
'पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवजितम्' यह श्लोक का अर्ध भाग समानरूप से दोनों ग्रन्थों में पाया जाता है।
'सर्वातिशयसम्पूर्ण' यह पद समान रूप से ज्ञानार्णव (७८, पृ. ४०१ व २, पृ. ४०६) और ध्यानस्तव (२६) दोनों में देखा जाता है ।
ज्ञानार्णव (१३, पृ. ४३३) में प्रथम शुक्लध्यान का निर्देश करते हुए यह कहा गया हैसवितकं सवीचारं सपृथक्त्वं तदिष्यते।
ध्यानस्तव (१७) में भी उसका निर्देश इस प्रकार किया गया है-सवितकं सवीचारं सपृथक्त्वमुवाहृतम् ।
१. ज्ञाना. श्लोक ६, ७ व १०, पृ. ३१७-१८. २. ध्यानस्तव ३७-३९. (श्लोक ३६ में उपयुक्त 'प्रमाण-नय-निक्षेपैः' पद ज्ञानार्णव के श्लोक ८ (पृ. ३३८)
में भी उसी प्रकार पाया जाता है। ३. ज्ञानार्णव के अतिरिक्त इन चारों ध्यानों का वर्णन अन्य भी कितने ही ग्रन्थों में किया गया है (देखिये
पीछे प्रस्तावना पृ. १८-२५)। ४. पृ. ३८१-४२३. (इन चारों ध्यानों का विस्तार से निरूपण योगशास्त्र के सातवें, पाठवें, नौवें
और दसवें इन चार प्रकाशों में भी किया गया है; पर वह ज्ञानार्णव से सर्वथा समान है।) ५. ज्ञाना. १, पू. ३८१ (पूर्वार्ध); ध्यानस्तव २४ (उत्त.).