Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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प्रस्तावना
परन्तु प्रादिपुराण में, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, उक्त धर्मध्यान के स्वामित्व का विचार करते हुए उसका सद्भाव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से सातवें अप्रमत्त गुणस्थान तक ही बतलाया गया है। यह अवश्य विचारणीय है कि वहां 'वह अप्रमत्त दशा का पालम्बन लेकर अप्रमतों में परम प्रकर्ष को प्राप्त होता है' यह जो कहा गया है उसका अभिप्राय क्या सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से ही रहा है या आगे के कुछ अन्य अप्रमत्तों से भी। आगे वहां यह भी कहा गया है कि आगमपरम्परा के अनुसार वह सम्यग्दृष्टियों, संयतासंयतों और प्रमत्तसंयतों में भी होता है। यह मान्यता सर्वार्थसिद्धिकार और तत्त्वार्थवार्तिककार की रही है। शुक्लध्यान
शुक्लध्यान का निरूपण करते हुए आदिपुराण में प्राम्नाय के अनुसार उसके शुक्ल और परमशुक्ल ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं। उनमें छद्मस्थों के शक्ल और केवलियों के परमशक्ल कहा गया है'। इन भेदों का संकेत ध्यानशतक में भी उपलब्ध होता है, पर वहां परमशुक्ल से समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाती नामक चतुर्थ शुक्लध्यान अभीष्ट रहा है।
आगे दोनों ग्रन्थों में जो शुक्लध्यान के पृथक्त्ववितर्क सविचार प्रादि चार भेदों का निरूपण किया गया है वह बहुत कुछ समान है।
ध्यानशतक में शुक्लध्यानविषयक क्रम का निरूपण करते हुए एक उदाहरण यह दिया गया है कि जिस प्रकार सब शरीर में व्याप्त विष को मंत्र के द्वारा क्रम से हीन करते हए डंकस्थान में रोक दिया जाता है और तत्पश्चात् उसे प्रधानतर मंत्र के द्वारा उस डंकस्थान से भी हटा दिया जाता है उसी प्रकार तीनों लोकों के विषय करने वाले मन को ध्यान के बल से क्रमशः हीन करते हुए परमाणु में रोका जाता है और तत्पश्चात् जिनरूपी वैद्य उसे उस परमाणु से भी हटाकर उस मन से सर्वथा रहित हो जाते हैं।
यही उदाहरण प्रकारान्तर से आदिपुराण में भी दिया गया है। यथा-वहां कहा गया है कि जिस प्रकार सब शरीर में व्याप्त विष को मंत्र के सामर्थ्य से खींचा जाता है उसी प्रकार समस्त कर्मरूपी विष को ध्यान के सामर्थ्य से पृथक् किया जाता है। उक्त दोनों ग्रन्थों में एक अन्य उदाहरण मेघों का भी दिया गया है। यथा
जह वा घणसंघाया खणण पवणाहया विलिज्जति । झाण-पवणावहूया तह कम्म-घणा विलिज्जंति ॥ ध्या. श. १०२. यद्वन् वाताहताः सद्यो विलीयन्ते घनाघनाः।
तद्वत् कर्म-घना यान्ति लयं ध्यानानिलाहताः॥मा. पु. २१-२१३. इस प्रकार दोनों ग्रन्थों की वर्णनशैली तथा शब्द, अर्थ और भाव की समानता को देखते हुए इसमें सन्देह नहीं रहता कि आदिपुराण के अन्तर्गत वह ध्यान का वर्णन ध्यानशतक से अत्यधिक प्रभावित है । यहां इस शंका के लिए कोई स्थान नहीं है कि सम्भव है आदिपुराण का ही प्रभाव ध्यानशतक पर रहा हो, कारण इसका यह है कि ध्यानशतक पर हरिभद्र सूरि के द्वारा एक टीका लिखी गई है, अतः ध्यानशतक की रचना निश्चित ही हरिभद्र के पूर्व में हो चुकी है और हरिभद्र सूरि निश्चित ही प्रा. जिनसेन के पूर्ववर्ती हैं। इससे यही समझना चाहिए कि आदिपुराण के रचयिता जिनसेन स्वामी के समक्ष प्रकृत ध्यानशतक रहा है और उन्होंने उसका उपयोग उसमें किये गये ध्यान के वर्णन में किया है।
ध्यानशतक व ज्ञानार्णव प्राचार्य शुभचन्द्र (सम्भवतः वि. की ११वीं शती) विरचित ज्ञानार्णव यह एक ध्यानविषयक १. प्रा. पु. २१, १५५-५६.
२. स. सि. ६-३६; त. वा. ६, ३६, १३-१५. ३. प्रा. यु. २१-१६७.
४. ध्या. श. ८६. ५. घ्या. श. ७१-७२.
६. मा. पु. २१-२१४.