Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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प्रस्तावना
पूर्वोक्त ध्याता की प्ररूपणा में वहां यह कहा गया है कि जिन ज्ञान-वैराग्य भावनामों का पूर्व में कभी चिन्तन नहीं किया गया है उनका चिन्तन करने वाला मुनि ध्यान में स्थिर रहता है । वे भावनायें ये हैं-ज्ञानभावना, दर्शनभावना, चारित्रभावना और वैराग्यभावना। इन चारों भावनामों के स्वरूप का भी वहां पृथक् पृथक् निर्देश किया गया है।
इस कथन का आधार भी ध्यानशतक रहा है। वहां धर्मध्यान के बारह अधिकारों में प्रथम अधि. कार भावना ही है । इस प्रसंग में निम्न गाथा और श्लोक की समानता देखिये
पुव्वकयन्भासो भावणाहि झाणस्स जोग्गयमवेइ। तामो य णाण-दसण-चरित्त-वेरग्गजणियामो ॥ ध्या. श. ३०. भावनाभिरसंमूढो मुनिया॑नस्थिरीभवेत् ।
ज्ञान-वर्शन-चारित्र-वैराग्योपगताश्च ताः ॥मा. पु. २१.६५. ' इस प्रसंग में प्रादिपुराणकार ने वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षण, परिवर्तन और सद्धर्म देशन इनको ज्ञानभावना कहा है। ध्यानशतककार ने इन्हें धर्मध्यान के आलम्बनरूप से ग्रहण किया है। ज्ञानभावना का स्वरूप दिखलाते हुए ध्यानशतक में यह कहा गया है कि ज्ञान के विषय में किया जाने वाला नित्य अभ्यास मन के धारण-अशुभ व्यापार को रोककर उसके प्रवस्थान-को तथा सूत्र व अर्थ की विशुद्धि को भी करता है। जिसने ज्ञान के आश्रय से जीव-जीवादि सम्बन्धी गुणों की यथार्थता को जान लिया है वह अतिशय स्थिरबुद्धि होकर ध्यान करता है। ३ धर्मध्यान
ध्यानशतक में धर्मध्यान की प्ररूपणा करते हुए उस पर प्रारूढ होने के पूर्व मुनि को किन किन बातों का जान लेना आवश्यक है, इसका निर्देश करते हुए प्रथमतः भावना प्रादि बारह अधिकारों की सूचना की गई है।
उनमें से प्रादिपुराण में ध्यानसामान्य से सम्बद्ध परिकर्म के प्रसंग में, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। देश, काल, प्रासनविशेष और पालम्बन की जो प्ररूपणा की गई है वह ध्यानशतक से बहुत कुछ प्रभावित है।
ध्यानशतक में ध्यातव्य का निरूपण करते हुए ध्यान के विषयभूत (ध्येयस्वरूप) प्राज्ञा, अपाय, विपाक और द्रव्यों के लक्षण-संस्थानादि इन चार की प्ररूपणा की गई है।
ध्यातव्य या ध्येय के भेद से जो धर्मध्यान के प्राज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय ये चार भेद निष्पन्न होते हैं उनकी प्ररूपणा आदिपुराण में भी यथाक्रम से की गई है।
ध्यानशतक में प्राज्ञा की विशेषता को प्रगट करते हुए उसके लिए जो अनेक विशेषण दिए गये हैं उनमें अनादिनिधना, भूतहिता, अमिता, अजिता (अजय्या) और महानुभावा इन विशेषणों का उपयोग प्रादिपुराण में किया गया है।
____ध्यातव्य के चतुर्थ भेद (संस्थान) की प्ररूपणा करते हुए ध्यानशतक में द्रव्यों के लक्षण व संस्थान प्रादि तथा उनकी उत्पादादि पर्यायों के साथ पंचास्तिकायस्वरूप लोक, तद्गत पृथिवियों, वातवलयों
१. मा. पु. २१, ६४-६६.
२. प्रा. पु. २१-६६. ३. ध्या. श. ४२.
४. ध्या. श. ३१. ५. प्रा. पु. २१, ५७-५८ व ७६-८०. ६. प्रा. पु. २१, ८१-८३. ७. प्रा. पु. २१, ५६-७५.
८. आ. पु. २१-८७. है. ध्या. श.-प्राज्ञा ४५.४६, अपाय ५०, विपाक ५१, संस्थान ५२-६० १०. पा. पु.-प्राज्ञा २१, १३५-४१, अपाय १४१.४२, विपाक १४३-४७, संस्थान १४८-५४. ११. ध्या. श. ४५.; आ. पु. २१, १३७-३८.