Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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प्रस्तावना
जिनों का-सयोग केवली और प्रयोग केवली का ध्यान स्थिर अध्यवसानरूप न होकर योगों के निरोधस्वरूप है। अन्तर्मुहुर्त प्रमाण ध्यानकाल के समाप्त हो जाने पर चिन्ता अथवा ध्यानान्तर-अनुप्रेक्षा या भावनारूप चिन्तन होता है। इस प्रकार से बहुत वस्तुनों में संक्रमण के होने पर ध्यान का प्रवाह चलता रहता है।
यही बात आदिपुराण में भी इस प्रकार से कही गई है-एक वस्तु में जो एकाग्रतारूप से चिन्ता का निरोध होता है वह ध्यान कहलाता है और वह जिसके वज्रर्षभनाराचसंहनन होता है उसके अन्तमुहर्त काल तक ही होता है। जो स्थिर अध्यवसान है उसका नाम ध्यान है और इसके विपरीत जो चल चित्त है-चित्त की अस्थिरता है-उसका नाम अनुप्रेक्षा, चिन्ता अथवा भावना है । पूर्वोक्त लक्षणरूप वह ध्यान छद्मस्थों के होता है तथा विश्वदृश्वा-सर्वज्ञ जिनों के-जो योगास्रव का निरोध होता है उसे उपचार से ध्यान माना गया है । समानता के लिए दोनों के इन पद्यों को देखिये
जं थिरमझवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं ।। तं होज्ज भावणा वा अणुपेहा वा महव चिता ॥ ध्या. श. २. स्थिरमध्यवसानं यत् तद् ध्यानं यच्चलाचलम् ।
सानुप्रेक्षाथवा चिन्ता भावना चित्तमेव वा ॥ मा. पु. २१-६ ध्यान के भेद
आगे ध्यानशतक में प्रार्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल इन ध्यान के चार भेदों का निर्देश करते हए उनमें अन्तिम दो ध्यानों को निर्वाण का साधक तथा आर्त व रौद्र इन दो को संसार का कारण कहा गया है।
आदिपुराण में पागे सामान्य ध्यान से सम्बद्ध कुछ अन्य प्रासंगिक चर्चा करते हुए यह कहा गया है कि प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से ध्यान दो प्रकार का है। इस भेद का कारण शुभ व अशुभ अभिप्राय (चिन्तन) है। उक्त प्रशस्त और अप्रशस्त ध्यानों में से प्रत्येक दो दो प्रकार का है। इस प्रकार से ध्यान चार प्रकार का कहा गया है-मार्त व रौद्र ये दो अप्रशस्त तथा धर्म और शुक्ल ये दो प्रशस्त । इनमें प्रथम दो संसारवर्धक होने से हेय और अन्तिम दो योगी जनों के लिए उपादेय हैं। १प्रार्तध्यान- आगे ध्यानशतक में चार प्रकार के प्रार्तध्यान का स्वरूप दिखलाते हुए उसके फल, लेश्या, लिंग (अनुमापक हेतु) और स्वामियों का निर्देश किया गया है।
इसी प्रकार आदिपुराण में भी उक्त चार प्रकार के आर्तध्यान के स्वरूप को प्रगट करते हुए उसके स्वामी, लेश्या, काल, पालम्बन, भाव, फल और परिचायक हेतुओं का निर्देश किया गया है। २ रौद्रध्यान
मार्तध्यान के पश्चात् ध्यानशतक में पृथक् पृथक् चार प्रकार के रौद्रध्यान के स्वरूप को दिखलाते हुए उसके स्वामियों, फल, उसमें सम्भव लेश्याओं और परिचायक लिंगों का विवेचन किया गया है।
प्रादिपुराण में भी इस प्रसंग में प्रथमत: 'प्राणिनां रोदनाद् रुद्रः, तत्र भवं रौद्रम्' इस निरुक्ति के साथ उसके हिंसानन्द प्रादि चार भेदों का नामनिर्देश करते हुए यह कहा गया है कि वह प्रकृष्टतर तीन दुर्लेश्यामों के प्रभाव से वृद्धिंगत होकर छठे गुणस्थान से पूर्व पांच गुणस्थानों में सम्भव है। काल उसका अन्तर्मुहर्त है। तदनन्तर उसके उपर्युक्त चार भेदों का पृथक् पृथक् स्वरूप बतलाकर उसके परिचायक लिंगों १. ध्या. श. २.४.
२. प्रा. पु. २१, ८-१०.
४. प्रा. पु. २१, ११-२६. ५. , ,,६-१८.
६. प्रा. पु. २१, ३१-४१. ७. , , १९-२७.