Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 86
________________ प्रस्तावना ध्यानस्तव ग्रन्थ और ग्रन्थकार प्रस्तुत ग्रन्थ का 'ध्यानस्तव' यह एक सार्थक नाम है। ग्रन्थकार श्री भास्करनन्दी ने इसमें १०० श्लोकों के द्वारा जिनस्तुति के रूप में संक्षेप से ध्यान का सुव्यवस्थित व क्रमबद्ध वर्णन किया है। ग्रन्थ यद्यपि संक्षिप्त है, फिर भी उसमें ध्यान के प्रावश्यक सभी अंगों का समावेश बड़ी कुशलता से किया गया है । ग्रन्थ के संक्षिप्त व सुन्दर विषयविवेचन को देखते हुए ग्रन्थकार की बहुश्रुतता का परिचय सहज में ही मिल जाता है । ध्यानस्तव के अतिरिक्त उनके द्वारा तत्त्वार्थसूत्र पर एक महत्त्वपूर्ण वृत्ति भी लिखी गई है, जो ग्रन्थगत सभी विषयों को सरल और सुबोध भाषा में प्रस्फुटित करती है। इससे उसका 'सुखबोधा वृत्ति' यह सार्थक नाम समझना चाहिए । इस वृत्ति के आधार सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवार्तिक और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ग्रन्थ रहे हैं । ध्यानस्तव में जो नौ पदार्थों, सात तत्त्वों और छह द्रव्यों का विवेचन किया गया है उसका आधार उपर्युक्त तत्त्वार्थसूत्र की टीकात्रों के अतिरिक्त मुनि नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव विरचित द्रव्यसंग्रह भी रहा है। ग्रन्थकार भास्करनन्दी ने किस स्थान को अपने जन्म से पवित्र किया, माता-पिता उनके कौन थे तथा वे अन्त तक गृहस्थ रहे हैं, मुनिधर्म में दीक्षित हुए हैं, अथवा भट्टारक पद पर आसीन हुए हैं; इत्यादि उनके जीवन सम्बन्धी वृत्त के जानने के लिए कोई साधन-सामग्री उपलब्ध नहीं हैं । ग्रन्थ के अन्त में जो दो श्लोकों में संक्षिप्त प्रशस्ति' उपलब्ध है उससे इतना मात्र ज्ञात होता है कि वे सर्वसाधु के प्रशिष्य और जिनचन्द्र के शिष्य थे। सर्वसाधु यह नाम न होकर सम्भवतः उनकी एक प्रशंशापरक उपाधि रही है। भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित ध्यानस्तव की प्रस्तावना में उसकी विदुषी सम्पादिका कुमारी सुजुको प्रोहिरा के द्वारा यह सम्भावना प्रगट की गई है कि उनका नाम वृषभनन्दी तथा उपनाम चतुर्मुख व सर्वसाधु रहे हैं। उन्होंने वहां यह भी संकेत किया है कि तत्त्वार्थवृत्ति की प्रशस्ति में उपयुक्त 'शिष्यो भास्करनन्दिनामविबुधः' इत्यादि श्लोक में विपरीत क्रम से 'वृषभनन्दी' नाम पढ़ा जा सकता है, पर वह किस प्रकार से पढ़ा जा सकता है, इसे उन्होंने स्पष्ट नहीं किया। भास्करनन्दी के समय पर विचार करते हुए कु. प्रोहिरा ने सम्भावना के रूप में उनका समय १२वीं शताब्दी का प्रारम्भ (ई. १११० या ११२०) माना हैं। १. इसे आगे द्रव्यसंग्रह के साथ ध्यानस्तव की तुलना करते हुए स्पष्ट किया जायगा। २. इसी प्रकार की प्रशस्ति तत्त्वार्थवृत्ति में भी पायी जाती है। प्रशस्तिगत 'नो निष्ठीवेन्न शेते' इत्यादि श्लोक दोनों में समान है (देखिये घ्या. स्त. ६६)। ३. ध्यानस्तव की प्रस्तावना पृ. ३३ (अंग्रेजी) व ३२ (हिन्दी)। ४. ध्यानस्तव की अंग्रेजी प्रस्तावना पृ. ३७, हिन्दी पृ. ३५-३६.

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