Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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ध्यानशतक
महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें मुद्रित प्रति (परम श्रुतप्रभावक मण्डल, बम्बई) के अनुसार ४२ प्रकरण हैं । पद्यसंख्या लगभग २२३० है। संस्कृत भाषामय ये पद्य अनुष्टुभ्, आर्या, इन्द्रवज्रा, इन्द्रवंशा, उपजाति, उपेन्द्रवज्रा, पृथ्वी, मन्दाक्रान्ता, मालिनी, वसन्ततिलका, वंशस्थ, शार्दूलविक्रीडित, शालिनी, शिखरिणी मौर स्रग्धरा जैसे छन्दों में रचे गये हैं। ग्रन्थ की भाषा, कविता और पदलालित्य आदि को देखते हुए ग्रन्थकार की प्रतिभाशालिता का पता सहज में लग जाता है। सिद्धान्त के मर्मज्ञ होने के साथ वे एक प्रतिभासम्पन्न उत्कृष्ट कवि भी रहे हैं। ग्रन्थ में उक्त ४२ प्रकरण स्वयं ग्रन्थकार के द्वारा विभक्त किये गये हैं, ऐसा प्रतीत नहीं होता। मूल ग्रन्थ में कहीं किसी भी प्रकरण का प्रायः निर्देश नहीं किया गया है। विषयविवेचन भी प्रकरण के अनुसार क्रमबद्ध नहीं है, किसी एक विषय की चर्चा करते हुए वहां बीच बीच में अन्य विषय भी चचित हुए हैं। अन्य ग्रन्थों के भी बहुत-से पद्य उसमें 'उक्तं च' आदि के संकेत के साथ और विना किसी संकेत के भी समाविष्ट हुए हैं, भले ही उनका समावेश वहां चाहे स्वयं ग्रन्थकार के द्वारा किया गया हो अथवा पीछे अन्य अध्येतानों के द्वारा। ग्रन्थ में प्रमुखता से ध्यान की प्ररूपणा तो की ही मई है, पर साथ में उस ध्यान की सिद्धि में निमित्तभूत अनित्यादि भावनाओं, अहिंसादि महाव्रतों और प्राणायामादि अन्य भी अनेक विषय चर्चित हुए हैं। इसीलिए उसके 'ज्ञानार्णव' और 'ध्यानशास्त्र' ये दो सार्थक नाम ग्रन्थकार को अभीष्ट रहे हैं। ग्रन्थ का कुछ भाग सुभाषित जैसा रहा है।
प्रस्तुत ध्यानशतक में ध्यान व उससे सम्बद्ध जिन विषयों का वर्णन किया गया है उन सबका कथन इस ज्ञानार्णव में भी प्रायः यथाप्रसंग किया गया है। पर दोनों की वर्णनशैली भिन्न रही है। ध्यानशतक का विषयविवेचन पूर्णतया क्रमबद्ध व व्यवस्थित है, किन्तु जैसा कि ऊपर संकेत किया गया है, ज्ञानार्णव में वह विषयविवेचन का क्रम प्रायः व्यवस्थितरूप में नहीं रह सका है। इन दोनों ग्रन्थों में कहीं कहीं शब्द व अर्थ की जो समानता दिखती है वह इस प्रकार है
जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं ।
तं होज्ज भावणा वा अणुपेहा वा प्रहवं चिता ॥ ध्या. श. २. - एकाग्रचिन्तानिरोधो यस्तद् ध्यानं भावना परा। अनप्रेक्षार्थचिन्ता वा तज्जरभ्युपगम्यते ॥ ज्ञाना. १६, पृ. २५६. - X
X X निच्चं चिय जव इ-पसू-नपुंसक-कुसीलवज्जियं जइणो। ठाणं विजणं भणियं विसेसो झाणकालंमि ॥ ध्या. श. ३५. यत्र रागादयो दोषा अजस्र यान्ति लाघवम् । तत्रैव वसतिः साध्वी ध्यानकाले विशेषतः ॥ ज्ञाना. पृ. ८, २७८.
थिरकयजोगाणं पुण मुणीण झाणे सुनिच्चलमणाणं । गामंमि जणाइण्णे सुण्णे रणे व ण विसेसो ॥ ध्या. श. ३६. विजने जनसंकीर्णे सुस्थिते दुःस्थितेऽपि वा। यदि धत्ते स्थिरं चित्तं न तदास्ति निषेधनम् ॥ ज्ञाना. २२, पृ. २८०.
xx सव्वासु वट्टमाणा मुणमो जं देस-काल चेट्ठासु । वरकेवलाइलाभं पत्ता बहसो समियपावा ॥ ४०.
१. श्लोक ११, पृ.७; श्लोक ८८, पृ. ४४७; व इलो ८७, पृ. ४४६. (प्रत्येक प्रकरण के अन्तिम पुष्पिका
वाक्य में उसके 'योगप्रदीपाधिकार' इस नाम का भी निर्देश किया गया है।)