Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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प्रस्तावना
कारण आदि को जानकर प्रतिकूल भावना के आश्रय से उनका परित्याग करना चाहिए।
इस प्रकार तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर यह निश्चित प्रतीत होता है कि उक्त हिंसादि · के परित्याग के विषय में जो पद्धति जैन दर्शन में अपनायी गई हे लगभग वही पद्धति योगसूत्र में भी स्वीकार की गई है।
अहिंसा का महत्त्व--तिलोयपण्णत्ती, हरिवंशपुराण और ज्ञानार्णव आदि अनेक जैन ग्रन्थों में . यह निर्देश किया गया है कि जो महात्मा हिंसा एवं राग-द्वेषादि को छोड़कर वीतरागता की परमकाष्ठा को प्राप्त हो जाता है उसके समक्ष स्वभावतः जातिविरोधी जीव भी-जैसे सर्प व न्योला, बिल्ली व चूहा एवं सिंह व हिरण प्रादि भी-अपने उस स्वाभाविक वैर को छोड़कर आनन्दपूर्बक साथ साथ विचरण करते हैं।
यही अभिप्राय योगसूत्र में "अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः (२-३५)' इस सूत्र के द्वारा प्रगट किया गया है।
सोपक्रम-निरुपक्रम-अनेक जैन ग्रन्थों में आयु के ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं ---सोपक्रम और निरुपक्रम । जिस आयु का विघात-प्राणी का असमय में मरण-विष व शस्त्रादि के निमित्त से हो सकता है वह सोपक्रम प्रायु कहलाती है तथा जिस आयु का विघात असमय में नहीं हो सकता है-जैसे देवों की आयु का-उसे निरुपक्रम आयु कहा जाता है । तत्त्वार्थसूत्र में उन्हें अपवर्त्य और अनपवर्त्य आयु कहा गया है। जिस कारणकलाप के द्वारा दीर्घ काल की स्थिति वाली प्रायु को अल्प काल की
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१. वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम् । वितर्का हिंसादयः कृत-कारितानुमोदिता लोभ-मोहपूर्वका मृदु
मध्याधिमात्रा दुःखाज्ञानानन्तफला इति प्रतिपक्षभावनम् । यो. सू. २, ३३-३४ २. ति. प. (४-८९६) में कहा गया है कि तीर्थंकर के केवलज्ञान उत्पन्न हो जाने पर जो ग्यारह अतिशय प्रगट होते हैं उनमें तीसरा अहिंसा-हिंसा का अभाव है। आगे वहां यह भी कहा गया है कि वीतराग जिनके माहात्म्य से उनकी समवसरण सभा में अातंक, रोग, मरण, उत्पत्ति, वैरभाव, कामबाधा और भूख-प्यास की पीडा नहीं होती। यथाआतंक-रोग-मरणुप्पत्तीओ वैर-कामबाहाम्रो । तण्हा-छुहपीडायो जिणमाहप्पेण ण हवंति ॥ ४-६३३. यही अभिप्राय हरिवंशपुराण में भी प्रगट किया गया हैततोऽहि-नकुलेभेन्द्र-हर्यश्व-महिषादयः । जिनानुभावसम्भूतविश्वासा शमिनो बभुः ।। २-८७. अविद्या-बैर-मायादिदोषापायाप्ततद्गुणाः । हरीभाद्या विभान्त्यन्ये तिर्यञ्चस्तादृशो यथा ॥ ह. पु. ५७-१६०.. ज्ञानाणंव में भी कहा गया हैसारङ्गी सिंहशावं स्पृशति सूतधिया नन्दिनी व्याघ्रपोतं मार्जारी हंसबालं प्रणयपरवशा केकिकान्ता भुजङ्गम् । वैराण्याजन्मजातान्यपि गलितमदा जन्तवोऽन्ये त्यजन्ति श्रित्वा साम्यैकरूढं प्रशमितकलुषं योगिनं क्षीणमोहम् ।। ज्ञानार्णवं २६, पृ. २५०. ३. द्विविधान्यायूंषि-अपवर्तनीयानि अनपवर्तनीयानि च । अनपवर्तनीयानि पुनद्विविधानि सोपक्रमाणि निरुपक्रमाणि च । अपवर्तनीयानि तु नियतं सोपक्रमाणीति । त. भा. २-५१; प्रौपपातिकाश्चासंख्येयवर्षायुषश्च निरुपक्रमाः । चरमदेहाः सोपक्रमा निरुपक्रमाश्चेति । एभ्य औपपातिक-चरमदेहासंख्येयवर्षायुर्व्यः शेषा मनुष्यास्तिर्यग्योनिजाः सोपक्रमा निरुपक्रमाश्चापवायुषोऽनपवायुषश्च भवन्ति ।xxx उपक्रमोऽपर्तननिमित्तम् । त. भा. २-५२. (शेष आगे के पृष्ठ पर)