Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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ध्यानशतक
स्थानांग में शुक्लध्यान की ये चार अनुप्रेक्षायें निर्दिष्ट की गई हैं-अनन्तवृत्तितानुप्रेक्षा, विपरिणामानुप्रेक्षा, अशुभानुप्रेक्षा और अपायानुप्रेक्षा'। इन्हीं चारों का संकलन कुछ स्पष्टीकरण के साथ ध्यानशतक में भी किया गया है। भेद केवल उनके क्रम में रहा है।
उपर्युक्त तुलनात्मक विवेचन को देखते हुए इसमें सन्देह नहीं रहता कि स्थानांग के अन्तर्गत ध्यानविषयक उस सभी सन्दर्भ को ध्यानशतक में यथास्थान गभित कर लिया गया है।
प्रकृत स्थानांग में ध्यान के भेद-प्रभेदों का निर्देश करते हुए उनमें से चार प्रकार के प्रार्त और चार प्रकार के रौद्रध्यान के स्वरूप को दिखला कर उनके लक्षणों (लिंगों) का भी निर्देश किया गया है तथा धर्म और शुक्लध्यान के चार चार भेदों के स्वरूप को प्रगट करते हुए उनके चार चार लक्षणों, पालम्बनों और अनुप्रेक्षाओं की भी प्ररूपणा की गई है। पर वहां न तो ध्यानसामान्य का लक्षण कहा गया है और न उसके काल का भी निर्देश किया गया हैं। इसके अतिरिक्त उक्त चार ध्यान किस गुणस्थान से किस गुणस्थान तक सम्भव हैं, जीव किस ध्यान के प्राश्रय से कौन सी गति को प्राप्त होता है, तथा प्रत्येक के आश्रित कोनसी लेश्या आदि होती हैं; इत्यादि का विचार भी वहां नहीं किया गया। किन्तु ध्यानशतक में उन सबका भी विचार किया गया है। इससे यह समझना चाहिए कि ध्यानशतक की रचना का प्रमुख आधार स्थानांग तो रहा है, पर साथ ही उसकी रचना में तत्त्वार्थसूत्र प्रादि अन्य ग्रन्थों का भी प्राश्रय लिया गया है।
ध्यानशतक और भगवतीसूत्र व ओपपातिकसूत्र पूर्वोक्त ध्यानविषयक जो सन्दर्भ स्थानांग में पाया जाता है वह सब प्रायः शब्दशः उसी रूप में भगवतीसूत्र और प्रौपपातिकसूत्र में भी उपलब्ध होता है। अतः पुनरुक्त होने से उनके पाश्रय से यहां कुछ विचार नहीं किया गया। उनमें जो साधारण शब्दभेद व क्रमभेद है वह इस प्रकार है
स्थानांग और भगवतीसूत्र में आर्तध्यान के लक्षणों में जहां चौथा 'परिदेवनता' है वहां प्रोपपातिकसूत्र में वह 'विलपनता' है । इन दोनों के अभिप्राय में कुछ भेद नहीं है।
स्थानांग और भगवतीसूत्र में जहां धर्मध्यान के चार लक्षणों में तीसरा सूत्ररुचि और चौथा प्रवगाढरुचि है वहां औपपातिकसूत्र में तीसरा उपदेशरुचि और चौथा सूत्ररुचि है। ध्यानशतक में भी दूसरा लक्षण उपदेशश्रद्धान कहा गया है । परन्तु जैसा कि ऊपर स्पष्टीकरण किया जा चुका है, तदनुसार उन दोनों में अभिप्रायभेद कुछ नहीं रहा।
स्थानांग और भगवतीसूत्र के अन्तर्गत धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाओं में जहां प्रथमतः एकत्वानुप्रेक्षा है वहां प्रौपपातिक में प्रथमतः प्रनित्यानुप्रेक्षा का निर्देश किया गया है, एकत्वानुप्रेक्षा का स्थान य तीसरा है। ध्यानशतक में भी 'अनित्यादिभावना' के रूप में निर्देश किया गया है, संख्या की कुछ सूचना वहां नहीं की गई है।
स्थानांग और भगवतीसूत्र में निर्दिष्ट शुक्लध्यान के चार भेदों में तीसरा सूक्ष्मक्रियानिवर्ती और चौथा समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाती है। पर औपपातिकसूत्र में अनिवर्ती और अप्रतिपातीमें क्रमव्यत्यय होकर वे सक्ष्मक्रियाप्रतिपाती और समुच्छिन्नक्रियानिवर्ती के रूप में निर्दिष्ट हुए हैं।
इसी प्रकार प्रौपपातिकसूत्र में शुक्लध्यान के लक्षणों, पालम्बनों और अनुप्रेक्षाओं में भी कुछ थोडासा शब्दभेद व क्रमभेद हुमा है।
१. सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाप्रो पं० तं०-अणंतवत्तियाणुप्पेहा विप्परिणामाणुप्पेहा असु__ भाणुप्पेहा अवायाणुप्पेहा । स्थानां. पृ. १८८. २. ध्या. श. ८७-८८. ३. भगवतीसूत्र (अमदाबाद) २५, ७, पृ. २८१-८२. प्रोपपातिक २०, पृ. ४३.