Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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प्रस्तावना
ध्यानशतक और धवला का ध्यानप्रकरण
आचार्य भूतबलि-पुष्पदन्त ( प्रायः प्रथम शताब्दी) विरचित षट्खण्डागम पर प्रा. वीरसेन स्वामी ( वीं शताब्दी) द्वारा एक धवला नामक विस्तृत टीका रची गई है । षट्खण्डागम के वर्गणा नामक पांचवें खण्ड में एक कर्म अनुयोगद्वार है । उसमें १० कर्मभेदों के अन्तर्गत ८वें तपःकर्म का निर्देश करते हुए उसे छह अभ्यन्तर और छह बाह्य तप के भेद से बारह प्रकार का कहा गया है। उसकी व्याख्या करते हुए प्रा. वीरसेन ने अपनी उस टीका में अभ्यन्तर तप के पांचवें भेदभूत ध्यान की प्ररूपणा इन चार अधिकारों के द्वारा की है- ध्याता, ध्येय, ध्यान और ध्यानफल । तदनुसार वहां प्रथमतः ध्याता का विचार करते हुए उसमें कौन कौनसी विशेषतायें होना चाहिए, इसे स्पष्ट करने के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण विशेषणों का उपयोग किया गया है। इस प्रसंग में उन्होंने 'एत्थ गाहा' या 'गाहाओ' कहकर ध्यानशतक की इन गाथाओं को उद्धृत किया है? २ - २, ३९-४०, ३७, ३५-३६, ३८, ४१-४३ श्रौर ३०-३४ । कुछ गाथायें यहां भगवती आराधना से भी उद्धृत की
गई हैं ।
श्रागे घवला में क्रमप्राप्त ध्येय की प्ररूपणा में अनेक विशेषणों से विशिष्ट अरहन्त, सिद्ध और जनप्ररूपित नौ पदार्थों आदि को ध्येय – ध्यान के योग्य – कहा गया है ।
तत्पश्चात् ध्यान का निरूपण करते हुए उसके धर्म और शुक्ल इन दो भेदों का ही वहां निर्देश किया गया है, तपः कर्म का प्रकरण होने से वहां सम्भवतः श्रार्त और रौद इन दो ध्यानों को ग्रहण नहीं किया गया। वह धर्मध्यान ध्येय के भेद से चार प्रकार का कहा गया है – प्रज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय |
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आज्ञा, आगम, सिद्धान्त और जिनवचन ये समानार्थक शब्द हैं। इस आज्ञा के अनुसार प्रत्यक्ष व अनुमानादि प्रमाणों के विषयभूत पदार्थो का जो चिन्तन किया जाता है उसका नाम प्रज्ञाविचय है । इस प्रसंग में यहां 'एत्थ गाहाओ' कहकर ध्यानशतक की ४५-४६ गाथायें उद्धृत की गई हैं । इसके श्रागे एक गाथा (३८) और उद्धृत की गई है जो मूलाचार (५-२०२ ) में उपलब्ध होती है । ..
मिथ्यात्व, संयम, कषाय और योग से उत्पन्न होने वाले जन्म, जरा और मरण की पीडा का अनुभव करते हुए उनसे होने वाले अपाय का विचार करना, इसे अपायविचय धर्मध्यान कहते हैं । इस प्रसंग में यहां ध्यानशतक की ५०वीं गाथा उद्धृत की गई है। इसके साथ वहां कुछ पाठभेद को लिए हुए एक गाथा मूलाचार की भी उद्धृत की गई है, जिसका अभिप्राय यह है कि अपायविचय में ध्याता कल्याणप्रापक उपायों—तीर्थंकरादि पद की प्राप्ति की कारणभूत दर्शनविशुद्धि श्रादि भावनाओं का चिन्तन करता है, अथवा जीवों के जो शुभ-अशुभ कर्म हैं उनके अपाय ( विनाश) का चिन्तन करता है ।
विपाकविचय धर्मध्यान के स्वरूप को बतलाते हुए यहां यह कहा गया है कि प्रकृति, स्थिति, अनुभाग
१.ष. खं. ५, ४, २५-२६ – पु. १३, पृ. ५४.
२. धवला में इनकी क्रमिकसंख्या इस प्रकार है – १२, १४-१५, १६, १७-१८, १६, २०-२२ और २३-२७. (पु. १३, पृ. ६४-६८ ) .
३. धवला पु. १३, पृ. ६६-७०.
४. हेमचन्द्र सूरिविरचित योगशास्त्र में भी इन दो दुर्ष्यानों को ध्यान में सम्मिलित नहीं किया गया है (४-११५) ।
५. घवला में इनकी क्रमिकसंख्या ३३-३७ है (पृ. ७१) ।
६. धवला में उसकी क्रमिकसंख्या ३९ है (पृ. ७२) ।
७. मूलाचार ५-२०३. ( यह गाथा भगवती आराधना ( १७११) में भी उपलब्ध होती है); घवला में उसकी क्रमिकसंख्या ४० (पृ. ७२) ।