Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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ध्यानशतक
हो गया दिखता है। फिर भी दोनों ग्रन्थों के टीकाकार क्रम से अभयदेव सूरि पौर हरिभद्र सूरि ने उनका जो अभिप्राय व्यक्त किया है वह प्रायः समान ही है। ३ धर्मध्यान
स्थानांग में धर्मध्यान के ये चार भेद निर्दिष्ट किए गए हैं-आज्ञा विचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय' । ध्यानशतक में उसके इन नामों का निर्देश नहीं किया गया है। किन्तु वहां उसके भावनादि बारह अधिकारों में से ध्यातव्य अधिकार के प्रसंग में प्राज्ञा एवं अपाय आदि का जो स्वरूप निर्दिष्ट किया गया है उससे उसके वे चार भेद स्पष्ट हो जाते हैं।
स्थानांग में धर्मध्यान के ये चार लक्षण कहे गए हैं--प्राज्ञारुचि, निसर्गरुचि, सूत्ररुचि और अवगाढरुचि । ध्यानशतक में प्रकारान्तर से उनका निर्देश इस प्रकार किया गया है-पागम, उपदेश, आज्ञा और निसर्ग से जिनप्ररूपित तत्त्वों का श्रद्धान। इनमें श्रद्धान शब्द 'रुचि' का समानार्थक है। आज्ञा और निसर्ग ये दोनों ग्रन्थों में शब्दशः समान ही हैं। सूत्र के पर्यायवाची आगम शब्द का यहां उपयोग किया गया है। स्थानांग में चौथा लक्षण जो अवगाढरुचि कहा गया है उस में अवगाढ का अर्थ द्वादशांग का अवगाहन है, उससे होने वाली रुचि या श्रद्धा का नाम प्रवगाढरुचि है। इसके स्थान में ध्यानशतक में जो 'उपदेश' पद का उपयोग किया गया है उसका भी अभिप्राय वही है । कारण यह कि आगम के अनुसार तत्त्व के व्याख्यान का नाम ही तो उपदेश है। इस प्रकार अवगाढरुचि और उपदेशश्रद्धा में कुछ भेद नहीं है।
स्थानांग में धर्मध्यान के ये चार पालम्बन कहे गए हैं-वाचना, प्रतिप्रच्छना, परिवर्तना और अनुप्रेक्षा'। इनमें से वाचना, प्रच्छना और परिवर्तना ये तीन ध्यानशतक में शब्दशः समान ही हैं । स्थानांग में चौथा पालम्बन जो अनुप्रेक्षा कहा गया है उसके स्थान में ध्यानशतक में अनुचिन्ता को ग्रहण किया गया है । वह अनुप्रेक्षा का ही समानार्थक हैं। दोनों का ही अर्थ सूत्रार्थ का अनुस्मरण है ।
. स्थानांग में धर्मध्यान की ये चार अनुप्रेक्षायें कही गई हैं-एकानुप्रेक्षा, अनित्यानुप्रेक्षा, प्रशरणानुप्रेक्षा और संसारानुप्रेक्षा।
ध्यानशतक में धर्मध्यान से सम्बद्ध एक अनुप्रेक्षा नाम का पृथक् प्रकरण है । उसके सम्बन्ध में वहां इतना मात्र कहा गया है कि धर्मध्यान के समाप्त हो जाने पर मुनि सर्वदा अनित्यादि भावनामों के
१. प्रज्ञानात्-कुशास्त्रसंस्कारात् हिंसादिष्वधर्मस्वरूपेषु नरकादिकारणेषु धर्मबुद्धयाऽभ्युदयार्थ वा प्रवृत्ति
स्तल्लक्षणो दोषोऽज्ञानदोषः। स्थाना. टी. पृ. १९०. नानाविधेषु त्वकत्वक्षण-नयनोत्खननादिषु हिंसाधुपायेष्वसकृदप्येवं प्रवर्तते इति नानाविधदोषः । ध्या. श. टीका २६. २. धम्मे झाणे चउविहे चउप्पडोयारे पं० २०-प्राणाविजते अवायविजते विवागविजते संठाणविजते ।
स्थानां. पृ. १८८. ३. ध्या. श.-आज्ञा ४५-४६, अपाय ५०, विपाक ५१, संस्थान ५२-६२. ४. धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पं० त०-प्राणारुई णिसग्गरुई सुत्तरुई प्रोगाढरुती। स्थानां.
पृ. १८८. ५. ध्या. श. ६७. ६. धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि पालंबणा पं० तं०-बायणा पडिपुच्छणा परियट्टणा अणुप्पेहा । स्थानां.
पृ. १८८. ७. ध्या. श. ४२. ८. धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाम्रो पं० २०–एगाणुप्पेहा अणिच्चाणुप्पेहा असरणाणुप्पेहा
संसाराणुप्पेहा । स्थानां. पृ. १८८.