Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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ध्यानशतक
महत्त्वतूर्ण ग्रन्थ है । वह बारह अधिकारों में विभक्त है। उसके पंचाचार नामक पांचवें अधिकार में तप आचार की प्ररूपणा करते हुए अभ्यन्तर तप के जो छह भेद निर्दिष्ट किये गये हैं उनमें पांचवां ध्यान है। इस ध्यान की वहां संक्षेप में (गा. १९७-२०८)प्ररूपणा की गई है। वहाँ सर्वप्रथम ध्यान के आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल इन चार भेदों का निर्देश करने हुए उनमें प्रार्त और रौद्र इन दो को अप्रशस्त तथा धर्म और शुक्ल इन दो को प्रशस्त कहा गया है (१९७)। आगे उन चार ध्यानों के स्वरूप को यथाक्रम से प्रगट करते हुए यह कहा गया है कि अमनोज्ञ (अनिष्ट) के संयोग, इष्ट के वियोग, परीषह (क्षधादि की वेदना) और निदान के विषय में जो कषाय सहित ध्यान (चिन्तन) होता है उसे प्रार्तध्यान कहते हैं (१९८)। चोरी, असत्य, संरक्षण-विषयभोगादि के साधनभूत धनादि के संरक्षण-पोर छह प्रकार के प्रारम्भ के विषय में जो कषायपूर्ण चिन्तन होता है उसे रौद्रध्यान कहा जाता है (१९९)। उपर्युक्त प्रार्त और रौद्र ये दोनों ध्यान चूंकि सुगति-देवगति व मुक्ति की प्राप्ति में बाधक हैं, अतएव यहां उन्हें छोड़कर व धर्म और शुक्ल ध्यान में उद्यत होकर मन की एकाग्रतापूर्वक उनके चिन्तन की प्रेरणा की गई है (२००-२०१)।
आगे क्रमप्राप्त धर्मध्यान के प्राज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय इन चार भेदों का निर्देश करते हुए पृथक् पृथक् उनके स्वरूप को भी प्रगट किया गया है। अन्तिम संस्थानविचय के प्रसंग में यह भी कहा गया है कि धर्मध्यानी यहां अनुगत अनुप्रेक्षामों का भी विचार करता है। तदनन्तर उन बारह अनुप्रेक्षाओं के नामों का निर्देश भी किया गया है (२०१-२०६)।
तत्पश्चात् शुक्लध्यान के प्रसंग में यहां इतना मात्र कहा गया है कि उपशान्तकषाय पृथक्त्ववितर्क-वीचार ध्यान का, क्षीणकषाय एकत्व-वितर्क-प्रवीचार ध्यान का, सयोगी केवली तीसरे सूक्ष्मक्रिय शुक्लध्यान का और अयोगी केवली समुच्छिन्नक्रिय शुक्लध्यान का चिन्तन करता है (२०७-२०८)।
मुलाचार में जहां प्रसंगप्राप्त इस ध्यान की संक्षेप में प्ररूपणा की गई है वहां ध्यानविषयक एक स्वतंत्र ग्रन्थ होने से ध्यानशतक में उसकी विस्तार से प्ररूपणा की गई है। दोनों में जो कुछ समानता व असमानता है वह इस प्रकार है
मुलाचार में सामान्य से चार ध्यानों के नामों का निर्देश करते हुए प्रात व रौद्र को अप्रशस्त और धर्म व शुक्ल को प्रशस्त कहा गया है (५-१९७)। इसी प्रकार ध्यानशतक में भी उक्त चार ध्यानों के नाम का निर्देश करते हुए उनमें अन्तिम दो ध्यानों को मुक्ति के साधनभूत तथा प्रात व रौद्र इन दो को संसार का कारणभूत कहा गया है (५) । यही उनकी अप्रशस्तता और प्रशस्तता है।
मुलाचार में प्रार्तध्यान के चार भेदों का नामनिर्देश न करके सामान्य से उसका स्वरूप मात्र प्रगट किया गया है। उस स्वरूप को प्रगट करते हुए अमनोज्ञ के योग, इष्ट के वियोग, परीषह और निदान इस प्रकार से उसके चिन्तनीय विषय के भेद का जो दिग्दर्शन कराया गया है उससे उसके चार भेद स्पष्ट हो जाते हैं (५-१९८) । तत्त्वार्थसूत्र (६-३२) में जहां उसके तृतीय भेद को वेदना के नाम से निर्दिष्ट किया गया है वहां प्रकृत मूलाचार में उसका निर्देश परीषह के नाम से किया गया है।
ध्यानशतक में भी उसके चार भेदों का नामनिर्देश नहीं किया गया, फिर भी उसके चार भेदों का स्वरूप जो पृथक् पृथक् चार गाथाओं (६-६) के द्वारा निर्दिष्ट किया गया है उससे उसके चार भेद प्रकट हैं (१९-२२)। यहां उनका कुछ क्रमव्यत्यय अवश्य है। जैसे प्रथम भेद में अमनोज्ञ के वियोग, द्वितीय भेद में शूल रोगादि की वेदना के क्यिोग, तृतीय भेद में अभीष्ट विषयों की वेदना (अनुभवन) के अवियोग और चतुर्थ भेद में निदान के विषय में चिन्तन। इस प्रकार मूलाचार में जो द्वितीय है वह ध्यानशतक में तृतीय है तथा मूलाचार में जो तृतीय है वह ध्यानशतक में द्वितीय है। इसके अतिरिक्त दोनों में वियोग और अवियोग विषयक भी कुछ विशेषता रही है। जैसे-मूलाचार में अमनोज्ञ का र (संयोग) होने पर जो उसके विषय में संक्लेशरूप परिणति होती है उसे प्रयम मार्तध्यान कहा गया है।