Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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प्रस्तावना
सूत्र में--पागमविषयक उपदेश में-स्वभावतः मचि हा करती है।
प्रस्तत ध्यानशतक (६७) में भी धर्मधान के परिचायक लिंग का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि पागम, उपदेश, प्राज्ञा और निसर्ग (स्वभाव) से जो धर्मध्यानी के जिनोपदिष्ट पदार्थों का श्रद्धान हुमा करता है, वह धर्मध्यान का लिंग (हेतु) है।
दोनों ग्रन्थगत उन गाथाओं में शब्द व अर्थ से यद्यपि बहुत कुछ समानता दिखती है, फिर भी ध्यानशतक में उक्त अभिप्राय भगवती-माराधना से न लेकर सम्भवतः स्थानांग से लिया गया है। उसके साथ समानता भी अधिक है।
इसी प्रकार भगवती-आराधना में धर्मध्यान के जिन पालम्बनों का निर्देश किया गया है। उनका उल्लेख यद्यपि ध्यानशतक (४२) में किया गया है, फिर भी वहां उनका उल्लेख भगवती-पाराधना के पाश्रय से न करके उक्त स्थानांग से ही किया गया दिखता है।
भगवती-आराधनागत -इस ध्यान प्रकरण की समानता पूर्वोक्त मूलाचार के उस प्रकरण के साथ अवश्य कुछ रही है। दोनों ग्रन्थों में विषयविवेचन की पद्धति ही समान नहीं दिखती, बल्कि कुछ गाथायें भी दोनों ग्रन्थों में समान रूप से उपलब्ध होती हैं। यथा-मूला. ५, १९८-२०० व भ. प्रा. १७०२.४. तथा मूला. २०२-६ व भ. प्रा. १७११-१५. ...
ध्यानशतक और तत्त्वार्थसूत्र आचार्य उमास्वाति (वि. द्वि.-तृ. शती) विरचित तत्त्वार्थसूत्र १० अध्यायों में विभक्त है । उसमें मुक्ति के प्रयोजनीभूत जीवादि सात तत्त्वों की संक्षेप में प्ररूपणा की गई है। उसके नौवें अध्याय में संवर और निर्जर। के कारणभूत तप का वर्णन करते हुए अभ्यन्तर तप के छठे भेदभूत ध्यान का संक्षेप में व्याख्यान किया गया है-उसका प्रभाव ध्यानशतक पर विशेषरूप में रहा दिखता है । यथा
१ तत्त्वार्थसूत्र में सर्वप्रथम ध्यान के स्वरूप, उसके स्वामी और काल का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि एकाग्रचिन्तानिरोध का नाम ध्यान है। वह उत्तम संहनन वाले जीव के अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है।
ध्यानशतक में उसके स्वरूप का निर्देश करते हुए जो यह कहा गया है कि स्थिर अध्यवसान को ध्यान कहते हैं, उसका अभिप्राय तत्त्वार्थसूत्र जैसा ही है। कारण यह कि स्थिर का अर्थ निश्चल और अध्यवसान का अर्थ एकाग्रता का पालम्बन लेने वाला मन है। तदनुसार इसका भी यही अभिप्राय हुमा कि मन की स्थिरता या एक वस्तु में चिन्ता के निरोध को ध्यान कहते हैं। आगे उसे स्पष्ट करते हुए यही कहा गया है कि एक वस्तु में जो चित्त का अवस्थान-चिन्ता का निरोध है-उसे ध्यान कहा जाता है और वह अन्तर्मुहुर्त मात्र रहता है। तत्त्वार्थसूत्र में जहां उसके स्वामी का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि वह उत्तम संहनन वाले के होता है वहां ध्यानशतक में उसे और अधिक स्पष्ट करते
१. धम्मस्स लक्खणं से अज्जव-लहगत्त-मद्दवोवसमा ।
उवदेसणा य सुत्ते णिसग्गजारो रुचीनो दे ॥ भ. पा. १७०६. २. धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पं० तं०-प्राणारुई णिसग्गरुई सुत्तरुई प्रोगाढरुती। स्थानांग
२४७, पृ. १८८. ३. पालंबणं च वायण पुच्छण परियट्रणाणपेहाम्रो।
धम्मस्स तेण अविरुद्धामो सव्वाणुपेहाम्रो ॥ भ. प्रा. १७१० व १८७५. ४. धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि पालंबणा पं० त०-वायणा पडिपुच्छणा परियट्टणा अणुप्पेहा । स्थानांग
२४७, पृ. १८८. ५. त. स. ६-२७.
"भ.पा. १७४० व रमा मयुरहा । स्थानात