Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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प्रस्तावना
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जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। वहां तत्त्वार्थसूत्र आदि अनेक ग्रन्थों में उसे हेयस्वरूप संसार की हानि का — उससे मुक्त होने का - प्रमुख कारण कहा गया है। उसकी इस प्रमुखता का कारण यह है कि उसके विना ज्ञान चारित्र भी यथार्थता को नहीं प्राप्त होते ।
सम्यग्ज्ञान - यह शब्द योगसूत्र २ - २८ के भाष्य में उपलब्ध होता है । जैन दर्शन के अन्तर्गत उक्त तत्त्वार्थ सूत्र आदि ग्रन्थों में सम्यग्दर्शन के साथ इसे भी मोक्ष का कारण कहा गया है। योगसूत्र २-४ की भोजदेव विरचित वृत्ति में यह कहा गया है कि सम्यग्ज्ञान के द्वारा मिथ्याज्ञानरूप अविद्या के हट जाने पर दग्धबीज के समान हुए क्लेश अंकुरित नहीं होते' । आगे सूत्र २ - १६ की उत्थानिका में भी उक्त वृत्ति में उसी अभिप्राय को व्यक्त किया गया हैं ।
केवली - योगसूत्र ३ - ५५ के भाष्य में कहा गया है कि जब पुरुष के कैवल्य प्रगट हो जाता है। तब वह स्वरूपमात्र ज्योति निर्मल केवली हो जाता है । कैवल्य के स्वरूप को दिखलाते हुए वहां यह निर्देश किया गया है कि ज्ञान से प्रदर्शन हट जाता है, प्रदर्शन के हट जाने से अस्मिता आदि आगे के क्लेश नहीं रहते, तथा उन क्लेशों के विनष्ट हो जाने से कर्मविपाक का अभाव हो जाता है । इस प्रकार इस अवस्था में सत्त्वादि गुणों का अधिकार समाप्त हो जाने से वे दृश्यत्वेन उपस्थित नहीं रहते । यही पुरुष का कैवल्य है ।
मूलाचार (७-६७), आवश्यक निर्युक्ति ( ८९ व १०७९), सर्वार्थसिद्धि (६-१३) और तत्त्वार्थाघिगम भाष्य (का. ६, पृ. ३१६ ) आदि अनेक जैन ग्रन्थों में उक्त केवल शब्द व्यवहार हुआ है । अज्ञान, प्रदर्शन, राग, द्वेष एवं मोह आदि के हट जाने से पूर्णज्ञानी (सर्वज्ञ) होकर स्वरूप में स्थित होना; यह जो केवली का स्वरूप है वह प्रायः दोनों दर्शनों में समान है ।
जैन दर्शन, भगवद्गीता श्रौर योगदर्शन आदि में प्रतिपादित ध्यान अथवा योग के विषय में परस्पर कितनी समानता है; इसके विषय में यहां कुछ तुलनात्मक दृष्टि से विचार किया गया है । यद्यपि यह कुछ अप्रासंगिक सा दिखता है, फिर भी जो पाठक अन्य सम्प्रदाय के ध्यानविषयक ग्रन्थों से परिचित नहीं हैं वे कुछ उससे परिचित हो सकें, इस विचार से यह प्रयत्न किया गया है। जैन दर्शन के समान अन्य दर्शनों में भी योगविषयक महत्त्वपूर्ण साहित्य उपलब्ध है । उसमें योगवाशिष्ठ आदि कुछ ग्रन्थ प्रमुख हैं ।
अब श्रागे हम प्रस्तुत ध्यानशतक पर पूर्ववर्ती कौन से जैन ग्रन्थों का कितना प्रभाव रहा है, इसका कुछ विचार करेंगे
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ध्यानशतक और मूलाचार
प्राचार्य वट्टकेर ( सम्भवतः प्र. - द्वि. शती) विरचित मूलाचार यह एक मुनि के प्राचारविषयक
१. सम्यग्दर्शन- ज्ञान- चारित्राणि मोक्षमार्गः । त. सू. १-१.
२. विद्या वृत्तस्य सम्भूति-स्थिति-वृद्धि- फलोदयाः ।
न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव । रत्नक. ३२.
३. तस्यां च मिथ्यारूपायामविद्यायां सम्यग्ज्ञानेन निवर्तितायां दग्धबीजकल्पानां येषां न क्वचित् प्ररोहोऽस्ति । यो. सू. भोज. वृत्ति २-४.
४. तदेवमुक्तस्य क्लेश-कर्म विपाकराशे रविद्याप्रभवत्वादविद्यायाश्च मिथ्याज्ञानरूपतया सम्यग्ज्ञानोच्छेद्यत्वात् सम्यग्ज्ञानस्य च साधनहेयोपादेयावधारणरूपत्वात्तदभिधानायाह
५. परमार्थतस्तु ज्ञानाददर्शनं निवर्तते तस्मिन् निवृत्ते न सन्त्युत्तरे क्लेशाः, क्लेशाभावात् कर्मविपाकाभावः । चरिताधिकाराश्चतस्यामवस्थायां गुणाः न पुनदृश्यत्वेनोपतिष्ठन्ते । तत् पुरुषस्य कैवल्यम् । तदा पुरुषः स्वरूपमात्रज्योतिरमलः केवली भवतीति । भा. ३-५५.