Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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प्रस्तावना
उससे सहित का नाम सोपक्रम और रहित का नाम निरुपक्रम है । यह उपक्रम शब्द तत्त्वार्थाधिगम भाष्य ( २-५२) व उसकी हरि व सिद्ध. वृत्तियों (२, ५१-५२ ) आदि अनेक जैन ग्रन्थों में व्यवहृत हुआ है । सोपक्रम और निरुपक्रम शब्दों का भी उपयोग तत्त्वार्थाधिगम भाष्य (२, ५१-५२ ) । उसकी हरिभद्र व सिद्धसेन विरचित वृत्तियों (२०५२) श्रर षट्खण्डागम की धवला टीका (पु. ६, पृ. ८६ व पु. १०, पृ. २३३-३४ व २३८) आदि में हुआ है ।
प्रकाशावरण - इसका उपयोग योगसूत्र के इन सूत्रों में हुआ है - ततः क्षीयते प्रकाशावरणम् ( २-५२), बहिरकल्पिता वृत्तिर्महाविदेहा ततः प्रकाशावरणक्षय: ( ३- ४३ ) । षट्खण्डागम ( १, ६-१, ५ -- पु. ६, पृ. ६ आदि ) व तत्त्वार्थसूत्र ( ८-४) प्रादि अनेक जैन ग्रन्थों में इसके समानार्थक ज्ञानावरण व ज्ञानावरणीय शब्दों का उपयोग हुआ है ।
प्रणिमा -- इसका उपयोग योगसूत्र में इस प्रकार हुआ है - ततोऽणिमादिप्रादुर्भावः कायसम्पद्धधर्मानभिघातश्च ( ३ - ४५ ) । अणिमा व महिमा आदि ऐसे शब्दों का व्यवहार तिलोयपण्णत्ती ( ४ - १०२६), तत्त्वार्थवार्तिक ( ३, ३६, २) और घवला टीका (पु. ६, पृ. ७५) आदि जैन ग्रन्थों में बहुतायत हुआ है।
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वज्रसंहननत्व - - इसका उपयोग योगसूत्र में इस प्रकार हुआ है -- रूप लावण्य - बल वज्रसंहननत्वानि उपयोग कायसम्पत् (३-४६) । वज्रर्षभनाराचसंहनन और वज्रनाराचसंहनन जैसे शब्दों का षट्खण्डागम ( १, ६-१, ३६- पु. ६, पृ. ७३) व सर्वार्थसिद्धि ( ८-१९ ) श्रादि अनेक जैन ग्रन्थों में हुआ है ।
कैवल्य -- इसका उपयोग योगसूत्र के इन सूत्रों में किया गया है - तदभावात् संयोगाभावो हानम्, तद् दृशेः कैवल्यम् (२-२५), तद्वैराग्यादपि दोषबीजक्षये कैवल्यम् (३-५०), सत्त्व - पुरुषयोः शुद्धिसाम्ये कैवल्यम् ( ३-५५), पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तेरिति (४-३४) । ' केवलस्य भावः कैवल्यम्' इस निरुक्ति के अनुसार 'केवल' शब्द से कैवल्य बना है । जैन दर्शन में सर्वज्ञ व सर्वदर्शी के ज्ञान को केवलज्ञान स्वीकार किया गया है । केवलज्ञान शब्द का उपयोग षट्खण्डागम (५, ५, ८१ - पु. १३, पृ. ३४५), तत्त्वार्थ सूत्र ( १०- १ ), तिलोयपण्णत्ती ( ४-९७४) और पंचसंग्रह (दि. १- १२६) आदि अनेक जैन ग्रन्थों में हुआ है । केवलज्ञान से सम्पन्न अरहन्त को केवली और उनकी उस अवस्था को कैवल्य कहा गया है । कैवल्य इस शब्द का उपयोग भी स्वयम्भू स्तोत्र, ' समाधिशतक', आत्मानुशासन' और सिद्धिविनिश्चय (७-२१) व उसकी टीका आदि में किया गया है । उपर्युक्त विवेचन से यह भली भांति विदित हो जाता है कि जैन दर्शन में व्यवहृत बहुत से शब्द योगसूत्र में भी उसी रूप में व्यवहृत हुए हैं तथा अभिप्राय भी उनका प्रायः दोनों दर्शनों में समान रहा है।
विषय की समानता -
जिस प्रकार जैन दर्शन और योगसूत्र में अनेक शब्दों का समान रूप में व्यवहार हुआ है उसी प्रकार दोनों की विषय विवेचनप्रक्रिया में भी बहुत कुछ समानता पायी जाती है । जैसे -
वितर्क, विचार - जैन दर्शन में शुक्लध्यान के जिन चार भेदों का निरूपण किया गया है उनमें प्रथम शुक्लध्यान वितर्क व विचार से सहित तथा द्वितीय शुक्लध्यान वितर्क से सहित होकर भी विचार
१. एकान्तदृष्टिप्रतिषेधसिद्धिन्यायेषुभिर्मोह-रिपुं निरस्य ।
अस्मि कैवल्य विभूतिसम्राट् ततस्त्वमर्हन्नसि मे स्तवाः ।।११-५.
२. समीक्ष्य कैवल्यसुख स्पृहाणां XXX ॥ समाधि. ३.
३. X XX कैवल्यालोकितार्थे XX X ॥ आत्मानु. १४.
४. केवलस्य कर्मविकलस्य श्रात्मनो भावः कैवल्यम् । सिद्धिवि. टी. ७-२१, पृ. ४६१,