Book Title: Dhyanhatak Tatha Dhyanstava
Author(s): Haribhadrasuri, Bhaskarnandi, Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Veer Seva Mandir
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ध्यानशतक
सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥ मूला. २.१२. यो न वेत्ति परं देहादेवमात्मानमव्ययम् । लभते स न निर्वाणं तप्त्वापि परमं तपः॥ समाधि. ३३. प्रजातोऽनश्वरोऽमतः कर्ता भोक्ता सुखी बुधः।
देहमात्रो मलमतो गत्वोर्ध्वमचलः प्रभुः ॥ प्रात्मानु. २६६. २ गीता में जन्म व मरण का अविनाभाव इस प्रकार प्रगट किया गया है
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्वं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ २-२७. यही अभिप्राय जैन दर्शन में भी देखा जाता है
मृत्योर्मत्यन्तरप्राप्तिरुत्पत्तिरिह देहिनाम् । तत्र प्रमुदितान् मन्ये पाश्चात्ये पक्षपातिनः ॥ प्रात्मानु. १८८. प्रहतं मरणेन जीवितं जरसा यौवनमेष पश्यति ।
प्रतिजन्तु तदप्यहो स्वहितं मन्दमतिर्न पश्यति ॥ चन्द्र. च. १.६६. ३ गीता में शरीरान्तर की प्राप्ति के लिए जीर्ण वस्त्रों का उदाहरण देते हुए कहा गया है कि मनुष्य जिस प्रकार जीर्ण वस्त्रों को छोड़कर अन्य नये नये वस्त्रों को ग्रहण किया करता है उसी प्रकार प्राणी जीर्ण शरीरों को छोड़कर अन्य अन्य नवीन शरीरों को धारण किया करता है।
समाधिशतक में भी उस वस्त्र का उदाहरण देते हुए प्रकारान्तर से कहा गया है कि वस्त्र के सघन, जीर्ण, नष्ट अथवा रक्त होने पर उसको धारण करने वाला मनुष्य जिस प्रकार आत्मा कोअपने को-सघन, जीर्ण, नष्ट अथवा रक्त नहीं मानता है उसी प्रकार शरीर के भी सघन, जीर्ण, नष्ट, अथवा रक्त होने पर विद्वान् मनुष्य प्रात्मा को सघन, जीर्ण, नष्ट अथवा रक्त नहीं मानता है । इसका कारण यही है कि जिस प्रकार आत्मा से भिन्न वस्त्र है उसी प्रकार उससे भिन्न शरीर भी है। आगे गीता के समान उसी वस्त्र का उदाहरण देते हुए फिर से यह कहा गया है कि जो विवेकी जीव आत्मा को ही प्रात्मा मानता है-शरीर में प्रात्मबुद्धि नहीं रखता-वह अपने शरीर की अन्य गति को-एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर के ग्रहण को-निर्भयतापूर्वक एक वस्त्र को छोड़कर दूसरे वस्त्र के ग्रहण के समान ही मानता है, इसीलिए उसे मरण का कुछ भय नहीं रहता।
४ गीता में यह निर्देश किया गया है कि जो असत् है उसका कभी सद्भाव नहीं रहता और जो सत् है उसका कभी प्रभाव नहीं होता।
इसी प्रकार जैन दर्शन के अन्तर्गत पंचास्तिकायादि ग्रन्थों में भी कहा गया है कि भाव कासद्भूत पदार्थ का-कभी नाश (अभाव) नहीं होता और प्रभाव (असत्) की कभी उत्पत्ति नहीं होती।
१. नि. सा. गा. १०२ व वरांगचरित श्लोक ३१-१०१ भी द्रष्टव्य हैं। २. वासांसि जीर्णाणि यथा विहाय नवानि गह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ।। २-२२. ३. समाधि. ६३-६६. ४. प्रात्मन्येवात्मघीरन्यां शरीरगतिमात्मनः।
मन्यते निर्भयं त्यक्त्वा वस्त्रं वस्त्रान्तरग्रहम् ॥ समाधि. ७७. ५. नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ।। २-१६. ६. भावस्स णत्थि णासो पत्थि अभावस्स चेव उप्पादो।
गुण-पज्जयेसु भावा उप्पाद-वये पकुव्वंति ।। पंचा. १५. नवासतो जन्म सतो न नाशो दीपस्तमःपुदगलभावतोऽस्ति । स्व. स्तो. ५.४.